________________ किं पुनः कारणं येन नैगमव्यवहारौ विशेषान् समर्थयतः?, इत्याह जं नेगमववहारा लोअव्ववहारतप्परा सो य। ___ पाएण विसेसमओ तो ते तग्गाहिणो दो वि॥३७॥ [संस्कृतच्छाया:- यद् नैगमव्यवहारौ लोकव्यवहारतत्परौ, स च। प्रायेण विशेषमयस्तस्मात् तौ तद्ग्राहिणौ द्वावपि॥] यद् यस्माद् नैगमव्यवहारौ लोकव्यवहारतत्परौ, स च लोकव्यवहारस्त्यागाऽऽदानादिकः प्रायेण विशेषमयो विशेषनिष्ठ एव दृश्यते, सामान्यस्य व्रणपिण्ड्यादौ लोकेऽनुपयोगात्। वनं"सेना' इत्यादौ क्वचित् कश्चित् कथञ्चित् सामान्यस्याऽपि दृश्यते उपयोगः, इति प्रायोग्रहणम्। यत एवम्, तस्मात् तौ नैगमव्यवहारौ द्वावपि तद्ग्राहिणौ विशेषाभ्युपगमपरौ // इति गाथार्थः // 37 // अत्र परः प्राह तेसिंतुल्लमयत्ते को णु विसेसोऽभिहाणओ अन्नो?। तुल्लत्ते वि इहं नेगमस्स वत्थंतरे भेओ॥३८॥ आखिर वह क्या कारण है जिससे नैगम नय और व्यवहार नय 'विशेषों' का समर्थन करते हैं- (प्रश्न के उत्तर के) लिए कहा (37) ... जं नेगम-ववहारा लोअ-व्ववहारतप्परा सो य। पाएण विसेसमओ तो ते तग्गाहिणो दो वि // [(गाथा-अर्थः) चूंकि नैगम नय व व्यवहार नय (दोनों ही) लोकव्यवहार में तत्पर होते हैं, और लोकव्यवहार भी विशेषमय (यानी विशेषों पर ही आश्रित) होता है, इसलिए वे (दोनों नय) भी विशेषग्राही (माने गए) हैं।] ____ व्याख्याः - (जं=) चूंकि, नैगम व व्यवहार (-ये दोनों) नय लोकव्यवहार में तत्पर रहते हैं, और छोड़ना-लेना आदि रूप वह लोकव्यवहार भी प्रायः विशेषमय यानी विशेषों पर ही टिका हुआ दृष्टिगोचर होता है, लोक में (लौकिक व्यवहार, जैसे) व्रण-लेप आदि में सामान्य का उपयोग नहीं होता / प्रायः' इसलिए कहा, क्योंकि वन, सेना इत्यादि कथन में कहीं-कहीं, किसी दृष्टि से, सामान्य का उपयोग होता है जैसे, 'वन' कहने से एक वृक्ष का नहीं, वृक्ष-समूह का, तथा 'सेना' कहने से सैनिक आदि के समूह (सामान्य) का बोध होता है। चूंकि ऐसा होता है (अर्थात् लोकव्यवहार विशेषआधारित होता है), इसलिए वे नैगम व व्यवहार (ये दोनों) नय भी उस (विशेष) के ग्राहक होते हैं, (अर्थात्) विशेष के ही अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 37 // - यहां, किसी अन्य (प्रश्नकर्ता-) ने पूछा (38) तेसिं तुल्लमयत्ते को णु विसेसोऽभिहाणओ अन्नो? तुल्लत्ते वि इहं नेगमस्स वत्यंतरे भेओ || ---- विशेषावश्यक भाष्य /