________________ तदेतत् प्रेय केचिद् यथा परिहरन्ति, तथा तावद् दर्शयन्नाह केई बेन्तस्स सुयं सद्दो सुणओ मइ त्ति, तं न भवे। जंसव्वो च्चिय सद्दो दव्वसुयं तस्स को भेयो?॥११९॥ [संस्कृतच्छाया:- केचिद् ब्रुवतः श्रुतं शब्दः शृण्वतो मतिरिति, तद् न भवेत्। यत् सर्व एव शब्दो द्रव्यश्रुतं तस्य को भेदः? // ] 'सोइंदिओवलद्धी' इत्यत्र श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्यस्येति केवलबहुव्रीह्याश्रयणात् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः शब्द एवेति केचिद् मन्यन्ते, . स च प्रज्ञापकस्य ब्रुवतः श्रूयत इति कृत्वा श्रुतम्, शृण्वतस्तु श्रोतुरवग्रहेहाऽपायादिरूपेण मन्यते ज्ञायत इति मतिः। एवं च सत्युभयमुपपन्नं भवति, श्रोतृगताऽवग्रहादीनां च श्रुतत्वं परिहृतं भवति। संकीर्णता-सांकर्य-दोषयुक्तता हो जाएगी, और तब दोनों का भेद या पार्थक्य (ही) नहीं रह जाएगा। अथवा- जो (ज्ञान) मति है, वही श्रुत (भी) है, जो श्रुत है, वही मति (भी) है- इस प्रकार अभेदं ही सिद्ध होगा- यह स्वयं विचार करें। आप तो उनमें भेद प्रतिपादित करने चले थे, किन्तु प्रतिपादित हो गया- अभेद; यह तो वही बात हुई कि वेताल की शांति का प्रयत्न करने चले, किन्तु (उल्टे) वह वेताल (और भी अधिक) उत्थित- जागृत (शक्तिशाली होकर प्रकट) हो गया! इस प्रकार शंकाकार की ओर से प्रस्तुत गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 118 // . उक्त शंका का कुछ लोगों द्वारा एक समाधान- वस्तुतः जो पूर्णविज्ञ नहीं है, उनकी ओर से दोषपूर्ण समाधान- प्रस्तुत किया जाता है, उसका निरूपण कर रहे हैं (119) केई बेन्तस्स सुयं सद्दो सुणओ मइ त्ति, तं न भवे। जं सव्वो चिय सद्दो दव्वसुयं तस्स को भेयो? // [(गाथा-अर्थः) वक्ता का शब्द (सुने जाने के कारण) 'श्रुत' है, वही (शब्द) श्रोता के लिए 'मति' है- ऐसा कुछ लोग समाधान करते हैं। किन्तु यह समाधान युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जो भी शब्द है, वह द्रव्यश्रुत ही है, उसमें (वक्ता के लिए श्रुत, श्रोता के लिए मति- इस प्रकार का) भेद कैसे?] __ व्याख्याः- श्रोत्रेन्द्रिय से उपलब्धि है जिसकी- इस बहुब्रीहि समास के आधार पर श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि का अर्थ 'शब्द' ही है- ऐसा कुछ लोग मान रहे हैं। उनकी दृष्टि से यह समाधान प्रस्तुत है- वह शब्द वक्ता की अपेक्षा से श्रुत है क्योंकि वह (श्रोता द्वारा) सुना जाता है, किन्तु वही श्रोता के लिए अवग्रह-ईहा-अपायादि रूप से जाना जाता है, अतः मतिज्ञान है। ऐसा मानने पर दोनों कथनों की संगति हो जाती है और श्रोतृगत अवग्रहादि की श्रुतरूपता (दोष) का परिहार भी हो जाता है। a 190 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------