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________________ ननु भावश्रुतादूर्ध्वं मतिः किं सर्वथा न भवति?, इत्याह कज्जतया, न उ कमसो कमेण को वा मई निवारेइ?। जं तत्थावत्थाणं चुयस्स सुत्तोवओगाओ॥११०॥ [संस्कृतच्छाया:- कार्यतया, न तु क्रमशः क्रमेण को वा मतिं निवारयति? / यत् तत्रावस्थानं च्युतस्य श्रुतोपयोगतः॥] भावश्रुताद् मतिः कार्यतयैव नास्तीत्यनन्तरोक्तगाथावयवेन संबन्धः। न उ कमसो त्ति'। क्रमशस्तु मतिर्नास्तीत्येवं न, किं तर्हि?, क्रमशः साऽस्ति, इत्येतत् सर्वोऽपि मन्यते, अन्यथा आमरणावधि श्रुतमात्रोपयोगप्रसङ्गात् / यदि क्रमशः साऽस्ति, तर्हि क्रमेण भवन्त्यास्तस्या भवन्तः किं कुर्वन्ति?, इत्याह- 'कमेणेत्यादि / वाशब्दः पातनार्थे, सा च कृतैव, क्रमेण भवन्तीं मतिं को निवारयति?, मत्या श्रुतोपयोगो जन्यते, तदुपरमे तु निजकारणकलापात् सदैव प्रवृत्ता पुनरपि मतिरवतिष्ठते, पुनस्तथैव श्रुतं, तथैव च मतिः, इत्येवं क्रमेण भवन्त्या मतेनिषेधका वयं न भवाम इत्यर्थः। पुनः शंकाकार कह रहा है कि भावश्रुत के बाद क्या मति ज्ञान सर्वथा नहीं होता? इस शंका को दृष्टि में रखकर, उसका उत्तर अग्रिम गाथा में भाष्यकार प्रस्तुत कर रहे हैं . (110) , कज्जतया, न उ कमसो कमेण को वा मइं निवारेइ?। जं तत्थावत्थाणं चुयस्स सुत्तोवओगाओ // - [(गाथा-अर्थः) (भावश्रुत के बाद, उसके) कार्यरूप में मतिज्ञान नहीं होता, मात्र क्रमशः होना हमें अस्वीकार नहीं है। उनके क्रमशः होने को कौन मना कर रहा है? क्योंकि श्रुतोपयोग से च्युत होकर मतिज्ञान में अविस्थिति तो हो ही सकती है।] व्याख्या:- 'कार्यतया' पद का परवर्ती उक्त 'न' पद के साथ सम्बन्ध है, अतः अर्थ हुआभावश्रुत से कार्य रूप में मतिज्ञान प्रकट नहीं होता। (न तु क्रमशः-) इसी प्रकार 'न क्रमशः' का भी 'न' के साथ सम्बन्ध है, अतः अर्थ हुआ- 'श्रुतज्ञान के बाद अनुक्रम में मतिज्ञान नहीं होता'- ऐसा भी हमारा नहीं (कहना) है। तब क्या कहना है? (उत्तर-) श्रुतज्ञान के बाद क्रम से मतिज्ञान हो (सक)ता है- इसे तो (हम) सभी मानते हैं, अन्यथा आजीवन श्रुतमात्र-सम्बन्धी उपयोग बने रहने का प्रसंग खड़ा होगा। (प्रश्न-) यदि क्रमशः मतिज्ञान होता है तो क्रम से होने वाले मतिज्ञान के विषय में क्या अभिप्राय है? इसका उत्तर दिया- (कमेण क:- इत्यादि)। 'वा' पद अपने मत को रखने का संकेत देता है। अर्थात् वह (मतिज्ञान) तो होता ही है, क्योंकि अनुक्रम से हो रहे मतिज्ञान को कौन रोक रहा है? तात्पर्य यह है- मतिज्ञान से श्रुतोपयोग उत्पन्न होता है, श्रुतोपयोग की विरति के बाद, अपने कारण-समूह के बल पर सदा प्रवर्तमान होने वाला मतिज्ञान पुनः प्रकट होता है, पुनः उसी प्रकार श्रुतज्ञान, और पूर्वोक्तरीति से पुनः मतिज्ञान प्रकट होता है- इस क्रम में होने वाले मतिज्ञान का निषेध तो हम भी नहीं करते। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 175
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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