________________ आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी किरिया फलं च पाएण। जह दीसइ ठवणिंदे न तहा नामे न दव्विंदे॥५३॥ [संस्कृतच्छाया:- आकारोऽभिप्रायो बुद्धिः क्रिया फलं च प्रायेण / यथा दृश्यते स्थापनेन्द्रे न तथा नाम्नि न द्रव्येन्द्रे // ] यथा स्थापनेन्द्रे आकारो लोचनसहस्र-कुण्डल-किरीट-शचीसंनिधान-करकुलिशधारण-सिंहासनाऽध्यासनादिजनितातिशयो देहसौन्दर्यभावो दृश्यते, तथा स्थापनाकर्तुश्च यथा सद्भूतेन्द्राभिप्रायो विलोक्यते, तथा द्रष्टश्च यथा तदाकारदर्शनादिन्द्रबुद्धिरुपजायते, यथा चैनमुपसेवमानानां तद्भक्तिपरिणतबुद्धीनां नमस्करणादिका क्रिया संवीक्ष्यते, फलं च यथा प्रायेणोपलभ्यते पुत्रोत्पत्त्यादिकम्, न तथा नामेन्द्रे, नाऽपि द्रव्येन्द्रे / ततो नाम-द्रव्याभ्यां तावद् व्यक्त एव भेदः स्थापनाया इति भावः॥ इति गाथार्थः॥५३॥ तदेवं स्पष्टतया लक्ष्यमाणत्वादादावेव नाम-द्रव्याभ्यां स्थापनाया भेदमभिधाय नाम-स्थापनाभ्यां द्रव्यस्य भेदमभिधित्सुराह भावस्स कारणं जह दव्वं भावो अ तस्स पज्जाओ। उवओग-परिणइमओ न तहा नामं न वा ठवणा॥५४॥ (53) आगारोऽभिप्पाओ, बुद्धी किरिया फलं च पाएण। जह दीसइ ठवणिंदे, न तहा नामे न दविंदे // [(गाथा-अर्थः) आकार, अभिप्राय, बुद्धि व क्रिया- ये (चारों) जिस प्रकार स्थापना-इन्द्र में दिखाई देती हैं, उस तरह से नाम व द्रव्य (इन्द्र) में दिखाई नहीं देतीं (इसीलिए नाम व द्रव्य से स्थापना कुछ भिन्न सिद्ध होती है)।] व्याख्याः- जिस प्रकार, स्थापना-इन्द्र में तदाकारता यानी सहस्रलोचन, शची (इन्द्राणी) की समीप स्थिति, हाथ में वज्र-धारण, सिंहासन पर विराजना आदि से जनित अतिशय एवं दैहिक सौन्दर्य दिखाई देता है, उसी प्रकार स्थापना-कर्ता की दृष्टि से उस (स्थापित इन्द्र) में इन्द्रत्व का सद्भाव रूप अभिप्राय भी दृष्टिगोचर होता है, तथा जिस प्रकार दर्शक को भी तदाकारता के दर्शन से इन्द्रत्व की बुद्धि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इस (स्थापना-इन्द्र) की सेवा कर रहे भक्ति-परिणत बुद्धि बालों की नमस्कार आदि की क्रिया भी दिखाई देती है, साथ ही (उस सेवा से) पुत्रोत्पत्ति आदि फल का होना भी देखा जाता है, वैसी तदाकारता, अभिप्राय, बुद्धि आदि का दर्शन किसी नाम-इन्द्र या द्रव्य इन्द्र में नहीं होता। अतः नाम व द्रव्य की अपेक्षा स्थापना का भेद या वैशिष्ट्य (स्वतः सिद्ध) हैयह तात्पर्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥५३॥ इस प्रकार, नाम व द्रव्य से स्थापना के स्पष्ट लक्षित भेद का निरूपण कर नाम व स्थापना से द्रव्य की जो भिन्नता-विशेषता है, उसे कह रहे हैं (54) भावस्स कारणं जह, दव्वं भावो अ तस्स पज्जाओ। उवओग-परिणइमओ, न तहा नामं न वा ठवणा // --------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - - -