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________________ किञ्च, इन्द्रियजज्ञानस्य मति-श्रुताभ्यां पार्थक्ये षष्ठज्ञानप्रसङ्गः स्यात्। तस्मादिन्द्रियजज्ञानस्य मति-श्रुतयोरेवाऽन्तर्भावः, तथा च सति मति-श्रुतयोः परोक्षत्वे तस्याऽपि पारमार्थिकं परोक्षत्वमेव, मनोनिमित्तस्यापि ज्ञानस्य परनिमित्तत्वादनुमानवत् परोक्षत्वं प्रागेवोक्तम्।नच वक्तव्यम्-आगमे तत् तस्य न क्वचिद् विशेषतोऽभिहितम, यतो मति-श्रुतयोरागमे परोक्षत्वस्य विशेषतोऽभिधानात, मनोनिमित्तस्याऽपि च ज्ञानस्य तदन्तःपातित्वादिन्द्रियजज्ञानस्येव परोक्षत्वं सिद्धमेव॥ आह- ननु 'इंदियपच्चक्खं च नोइंदियपच्चक्खं च' इत्यत्र मनोनिमित्तज्ञानस्य सिद्धान्ते प्रत्यक्षत्वमुक्तम्, यतो नोइन्द्रियं तत्र मन उच्यते, तस्येन्द्रियैकदेशवृत्तित्वात्, नोशब्दस्य चैकदेशवचनत्वात्। ततश्च नोइन्द्रियनिमित्तं प्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षमिति व्युत्पत्त्या मनोनिमित्तज्ञानस्य प्रत्यक्षतैव स्यात्, कथं परोक्षता? इति। तदयुक्तम्, आगमार्थाऽपरिज्ञानात्। इन्द्रियज ज्ञान की प्रत्यक्षता-इन) आगमिक सिद्धान्तों का भी समर्थन हो जाएगा। (इस शंका का समाधान कर रहे हैं-) आपका कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि इन्द्रियां वर्तमान काल की ही वस्तु को ग्रहण करती हैं, किन्तु लिङ्ग (हेतु) से तो अग्नि आदि त्रिकालवर्ती पदार्थ का अनुमान-ज्ञान होता है, अतः लैङ्गिक ज्ञान मनोनिमित्तक होता है, इन्द्रियनिमित्तक नहीं होता। मति-श्रुत -ये दोनों ही इन्द्रिय व मन -इन दोनों के निमित्त से होते हैं, जिसे यहीं आगे (स्पष्ट) कहेंगे, ऐसी स्थिति में मात्र मनोनिमित्तक लैङ्गिक ज्ञान को ही मति-श्रुत रूप कैसे कहा जा सकता है? . - दूसरी बात, इन्द्रियजनित ज्ञान को मति-श्रुत से पृथक् माना जाय तो एक छठे ज्ञान का अंतिप्रसंग हो जायेगा (अर्थात् पांच ज्ञान के अस्तित्व सम्बन्धी सिद्धान्त का खण्डन होगा, क्योंकि तब छः ज्ञान मानने पड़ेंगें)। इसलिए (यही उचित है कि) इन्द्रियजनित ज्ञान को मति व श्रुत में ही अन्तर्भूत माना जाय, और तब मति-श्रुत की परमार्थतः परोक्षता होने के कारण, इन्द्रियजनित ज्ञान की भी परमार्थतः परोक्षता ही. (सिद्ध) हुई। मनोनिमित्तक ज्ञान भी परनिमित्तक होने से (लैङ्गिक) अनुमान की तरह परोक्ष है- यह पहले ही कह चुके हैं। “आगम में मनोनिमित्तक ज्ञान की परोक्षता का कोई विशेष कथन नहीं हुआ है"- यह भी कहना ठीक नहीं, क्योंकि मति व श्रुत की परोक्षता का आगम में स्पष्ट कथन है, और मनोनिमित्तक ज्ञान भी उसी (मति व श्रुत) में अन्तर्भूत है, इसलिए इन्द्रियजनित ज्ञान की परोक्षता सिद्ध हो जाती है। (नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष) .. (शंकाकार का पुनः कथन-) इन्द्रियप्रत्यक्ष और नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष- इस (आगमिक) वचन में मनोनिमित्तक ज्ञान की प्रत्यक्षता को सिद्धान्त रूप से बताया गया है, क्योंकि वहां 'नो-इन्द्रिय' शब्द में 'नो' पद एकदेश का वाचक है और मन चूंकि इन्द्रिय-एकदेश है, इसलिए नो-इन्द्रिय का अर्थ 'मन' है। तब नोइन्द्रियनिमित्तक जो (यानी मनोनिमित्तक) प्रत्यक्ष-इस व्युत्पत्ति से मनोनिमित्तक ज्ञान की प्रत्यक्षता ही सिद्ध होती है, उसे परोक्ष कैसे कहा जाता है? (शंका का समाधान-) आपका कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आगम के अर्थ को आप समझ नहीं पा रहे हैं। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------149 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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