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________________ अचेतनत्वेन ज्ञानवृत्तेरभावादिति प्रागेवोक्तम् / एतामेव च संव्यवहारप्रत्यक्षतामपेक्ष्याऽऽगमेऽपीन्द्रियप्रत्यक्षमित्युक्तम्, परमार्थतस्त्ववध्यादिकमेव प्रत्यक्षम्, आत्मनः प्रत्यक्षत्वात्, इदं तु तस्य परोक्षम्, परनिमित्तत्वात्, अनुमानादिवत्, इत्यनेकधा प्रोक्तमेव॥ आह- ननु भाष्यकारेणाऽपि कुत एतल्लब्धं यदुत- इन्द्रियमनोभवं ज्ञानं संव्यवहारत एव प्रत्यक्षम्, न परमार्थतः?, न ह्यत्र सूत्रे किमप्येवं विशेषतः प्रोक्तमस्ति 'इन्द्रियप्रत्यक्षम्' इति सामान्येनैव निर्देशात्। सत्यम्, किन्तु प्रदेशान्तरे प्रोक्तम्- 'परोक्खं दुविहं पन्नत्तं,तं जहा-आभिणिबोहिअनाणं परोक्खं च, सुयनाणं परोक्खं च' इति। न चाऽऽभिनिबोधिक-श्रुताभ्यामन्यदिन्द्रियनिमित्तं ज्ञानमस्ति यत् परमार्थतः प्रत्यक्षं स्यादिति॥ आह- यद्येवम्, तर्हि यल्लिङ्गमन्तरेणैव साक्षादिन्द्रियनिमित्तं ज्ञानमुत्पद्यते तत् परमार्थतः प्रत्यक्षमस्तु, यत्तु धूमादिलिङ्गादग्न्यादिविषयं लैङ्गिकं ज्ञानं तत् परोक्षस्वरूपे आभिनिबोधिक-श्रुते इष्यताम्, इत्यगमस्य प्रदेशद्वयोक्तमपि समर्थित भवति। तदयुक्तम्, धूमादिलिङ्गादग्न्यादिविषयलैङ्गिकज्ञानस्येन्द्रियनिमित्तत्वाभावात्, इन्द्रियं हि प्रत्युत्पन्नकालमात्रभाव्येव वस्तु गृह्णाति, लिङ्गात् तु वन्हि-आदिरर्थस्त्रिकालविषयोऽप्यनुमीयते / तस्माल्लैङ्गिकं ज्ञानं मनोनिमित्तमेव भवति, नेन्द्रियनिमित्तम्, इन्द्रिय-मनोनिमित्ते च मति-श्रुते अत्रैव वक्ष्येते, इति कथं केवलमनोविषयस्य लैङ्गिकज्ञानस्यैव मति-श्रुतरूपता स्यात्?। ... .. को वस्तु का साक्षात्कार रूप जो ज्ञान होता है, वह उन (इन्द्रियादि) के लिए प्रत्यक्ष होने से, मात्र लोक-व्यवहार की दृष्टि से प्रत्यक्ष कहा जाता है, किन्तु परमार्थ रूप से (वस्तुतः प्रत्यक्ष) नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय व मन अचेतन हैं और इसलिए उनमें ज्ञान-वृत्ति का सद्भाव नहीं हो (सक)ता- यह पहले ही कहा जा चुका है। इसी सांव्यवहारिक प्रत्यक्षता को दृष्टि में रख कर आगम में भी इन्हें 'इन्द्रिय-प्रत्यक्ष' (रूप में) कहा गया है। परमार्थ रूप में तो अवधि आदि ही प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि आत्मा के लिए (वे ही) प्रत्यक्ष हैं। किन्तु ये (मति-श्रुत) ज्ञान तो आत्मा के लिए परोक्ष ही हैं, क्योंकि वे परनिमित्तक हैं, अनुमान आदि की तरह। इस तथ्य को अनेक प्रकार से पहले प्रतिपादित किया ही जा चुका है। (शंकाकार कहता है-) इन्द्रियमनोजन्य ज्ञान मात्र सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, परमार्थतः (प्रत्यक्ष) नहीं- यह तथ्य भाष्यकार को कैसे अवगत हुआ? सूत्र में तो सामान्यतः उन्हें मात्र इन्द्रियप्रत्यक्ष कहा गया है, और विशेष रूप से (सांव्यवहारिक नाम से) तो कुछ कहा नहीं गया है। (इस शंका का समाधान इस प्रकार है-) आपकी बात सही है। किन्तु आगम में (नन्दी सूत्र में ही) अन्य स्थल पर कहा गया है- “परोक्ष दो प्रकार का होता है- (1) आभिनिबोधिक परोक्ष ज्ञान, और (2) श्रुत परोक्ष ज्ञान / ' इन आभिनिबोधिक व श्रुत ज्ञान से पृथक्/भिन्न अन्य कोई इन्द्रियनिमित्तक ज्ञान नहीं है ताकि उन्हें पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाय। (पुनः शंकाकार कहता है-) यदि ऐसी बात है, तो लिङ्ग (हेतु) के बिना ही साक्षात् इन्द्रियज ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे तो परमार्थतः प्रत्यक्ष मान लें। हां, जो धूम आदि लिङ्ग से अग्नि आदि विषयक लैङ्गिक (अनुमान) ज्ञान होता है, उसे परोक्ष रूप आभिनिबोधिक-श्रुत में (परिगणित) कर लें, इस प्रकार उक्त दोनों स्थलों पर कहे गए (एक स्थल पर मति-श्रुत की परोक्षता, और दूसरी जगह Ma 148 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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