________________ एगंतेण परोक्खं लिंगियमोहाइयं च पच्चक्खं। इंदिय-मणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं // 15 // [संस्कृतच्छायाः- एकान्तेन परोक्षं लैङ्गिकमवध्यादिकं च प्रत्यक्षम्। इन्द्रियमनोभवं यत् तत् संव्यवहारप्रत्यक्षम् // ] 'एगंतेण परोक्खं लिंगियमिति'। बाह्ये धूमादौ लिने भवं लैङ्गिकं यज्ज्ञानं तदेकान्तेनाऽऽत्मन इन्द्रिय-मनसां चाऽसाक्षात्कारेणोपजायमानत्वादेकान्तपरोक्षम्- इन्द्रिय-मनोभिर्गृहीते बाह्ये धूमादौ लिङ्गेऽग्न्यादिविषयं यज्ज्ञानमुत्पद्यते तदेकान्तेन परोक्षम्, इन्द्रियमनसामात्मनश्च तद्ग्राह्यार्थस्यैकान्तेन परोक्षत्वात्, इति भावः। 'ओहाइयं च पच्चक्खमिति' 'एकान्तेन' इत्यत्राऽपि वर्तते, ततश्चाऽवधिमनःपर्याय-केवललक्षणं ज्ञानत्रयमेकान्तेनाऽऽत्मनः प्रत्यक्षम्, बाह्यलिङ्गमन्तरेणेन्द्रिय-मनोनिरपेक्षत्वेन च जीवस्य वस्तुसाक्षात्कारित्वादिति। 'इंदियमणोभवमित्यादि'। यत्पुनरिन्द्रिय-मनोभवं ज्ञानं तत् संव्यवहारप्रत्यक्षम्, लिङ्गमन्तरेणैव यदिन्द्रिय-मनसां वस्तुसाक्षात्कारित्वेन ज्ञानमुपजायते तत् तेषां प्रत्यक्षत्वाल्लोकव्यवहारमात्रापेक्षया प्रत्यक्षमुच्यते, न परमार्थत इत्यर्थः, इन्द्रिय-मन:सु (2) नोइन्द्रियप्रत्यक्ष। (उत्तर-) आपका आगमिक कथन सही है किन्तु वहां इन्द्रियजनित ज्ञान की जो प्रत्यक्षता कही गई है, वह केवल व्यावहारिक प्रत्यक्षता (का कथन) ही है, परमार्थ- (वास्तविक) रूप से तो वह (इन्द्रियजनित ज्ञान आदि) परोक्ष ही है। उसी बात को भाष्यकार दोनों (प्रत्यक्ष व परोक्ष) ज्ञानों के विषयगत विभाजन का निदर्शन करते हुए (अग्रिम गाथा में) कह रहे हैं (95) एगंतेण परोक्खं लिंगियमोहाइयं च पच्चक्खं / इंदिय-मणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं // [(गाथा-अर्थः) लैंगिक (यानी अनुमान) ज्ञान एकान्ततः परोक्ष है और अवधि आदि (तीन) ज्ञान (एकान्ततः) परोक्ष हैं। (किन्तु) इन्द्रिय व मन से जनित जो ज्ञान है, वह (मात्र) व्यवहारप्रत्यक्ष है।] . * व्याख्याः- (एकान्तेन परोक्षम्...) बाह्य धूम आदि लिङ्ग (हेतु) से होने वाला जो लैङ्गिक ज्ञान है, वह एकान्त (रूप से) परोक्ष है, क्योंकि वह आत्मा व इन्द्रिय-मन को साक्षात् उत्पन्न नहीं होता। तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय व मन द्वारा गृहीत बाह्य धूम आदि लिङ्ग (हेतु) के प्रत्यक्ष होने पर (पर्वत आदि में) अग्नि आदि विषयक जो (अनुमान) ज्ञान उत्पन्न होता है, वह एकान्त रूप से परोक्ष है, क्योंकि उस (ज्ञान) से गृहीत (अग्नि आदि) पदार्थ इन्द्रिय, मन व आत्मा के लिए परोक्ष ही होता है। - (अवध्यादिकं च)- 'एकान्त से' इस पद की अनुवृत्ति यहां भी की जानी चाहिए। इसलिए अर्थ यह निकला-अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान-ये तीनों ज्ञान एकान्त रूप से आत्मा के लिए प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे बाह्य लिङ्ग (हेतु) के बिना और इन्द्रिय व मन की अपेक्षा के बिना ही जीव को पदार्थ का साक्षात्कार कराते हैं। (इन्द्रिय-मनोभवम् इत्यादि)- किन्तु इन्द्रिय व मन से उत्पन्न होने वाला जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। तात्पर्य यह है कि लिङ्ग (हेतु) का आधार लिये बिना इन्द्रिय व मन VA ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------147