________________ तत्र हि नोशब्दः सर्वनिषेधवचनः, ततश्चेन्द्रियाभाव एव नोइन्द्रियमच्यते, तथा च सति नोइन्द्रियेणेन्द्रियाभावेनाऽऽत्मनः प्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षमिति समासः, सर्वथेन्द्रियप्रवृत्तिरहितानि चाऽऽत्मनः प्रत्यक्षाण्यवधि-मन:पर्याय-केवलान्येव भवन्ति, न पुनर्मनोनिमित्तं ज्ञानम्। यदि पुनर्नोइन्द्रियं तत्र मनो व्याख्यायेत, तदा नोइन्द्रियनिमित्तं प्रत्यक्षमिति मनोनिमित्तमेवाऽवध्यादि ज्ञानं प्रत्यक्षं स्यात्, तथा च सति मन:पर्याप्त्याऽपर्याप्तस्य मनुष्य-देवादेरवधिज्ञानं न स्यात्, मनसोऽभावात्, तच्चाऽयुक्तम्, 'चुएमि त्ति जाणइ' इति सिद्धान्ते तस्याऽवधिज्ञानाभ्युपगमात्। किंच, सिद्धानामपि प्रत्यक्षज्ञानाभावः स्यात्, अमनस्कत्वात् तेषाम्। अपरं च, मनोनिमित्तं ज्ञानं मनोद्रव्यद्वारेणैव जायते, ततश्च परनिमित्तत्वादनुमानवत् परोक्षमेव तत् कथं प्रत्यक्षं स्यात्?। किञ्च, यद्येतत् परमार्थतः प्रत्यक्षं स्यात् तदा परोक्षत्वेनोक्तयोर्मति-श्रुतयोर्नान्तर्भवेत्, ततश्च मतेरष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वं न स्यात्, मनोज्ञानसंबन्धिनामवग्रहादिभेदानां पार्थक्यप्रसङ्गात्, तत्पार्थक्ये षष्ठज्ञानाऽवाप्तिश्च स्यादिति। (1) वहां ज्ञान के प्रसंग में नो-शब्द सर्वनिषेधवाचक है (न कि एकदेश का वाचक), अतः नोइन्द्रिय का अर्थ है- इन्द्रिय-अभाव / इस प्रकार, नो-इन्द्रिय से प्रत्यक्ष का अर्थ हुआ- सर्वथा इन्द्रियअभाव से, यानी साक्षात् आत्मा को जो प्रत्यक्ष होता है, वह ज्ञान / सर्वथा इन्द्रियप्रवृत्ति से रहित आत्मा को साक्षात् होने वाले ज्ञान ये तीन ही हैं- अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान, और ये ही नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं, न कि मनोनिमित्तक ज्ञान / (2) यदि नो-इन्द्रिय का अर्थ 'मन' ही करेंगे तो नो-इन्द्रियनिमित्तक प्रत्यक्ष उन्हीं अवधि व मनःपर्यय ज्ञान को माना जा सकेगा जहां मन की निमित्तता हो, किन्तु तब मनःपर्याप्ति से रहित देव व मनुष्य को अवधि-ज्ञान प्रत्यक्ष का अभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि वहां तो मन का सद्भाव ही नहीं है। परन्त वैसा (मनःपर्याप्ति से रहित को अवधिज्ञान का अभाव) मानना (आगमविरुद्ध होने से) अयुक्त (अनुचित) है, क्योंकि “मैं (स्वर्ग से) च्युत हूं- ऐसा जिनेन्द्र तीर्थंकर भगवान् महावीर जानते हैं'- ऐसा( आगमिक) वचन मिलता है, इसलिए सिद्धान्त रूप में (मनः-अपर्याप्ति दशा में भी) उन (देव-मनुष्यों) को अवधिज्ञान होना मानना पड़ेगा। (3) यदि मनोनिमित्तक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष माना जाय तो सिद्धों को प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि उन (सिद्धों) के मन तो होता नहीं। ___ (4) इतना ही नहीं, मनोनिमित्तक ज्ञान जो होता है, वह द्रव्य मन के द्वारा ही होता है, ऐसी स्थिति में वह अनुमान की तरह ही परनिमित्तक (अर्थात् आत्मा से भिन्न जो द्रव्यमन, उसके निमित्त से प्रादुर्भूत) होने से परोक्ष ही सिद्ध होगा, उसकी प्रत्यक्षता कैसे सिद्ध होगी? __(5) यदि यह (मनोनिमित्तक ज्ञान) परमार्थ से प्रत्यक्ष होता तो परोक्ष (प्रमाण) रूप में कहे गए मति व श्रुत में इसे अन्तर्भूत नहीं होना चाहिए, और तब मति के 28 भेद भी घटित नहीं होंगे, a 150 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------