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________________ तस्मादिन्द्रिय-मनोभवं ज्ञानं परनिमित्तत्वात् परोक्षम्, मति-श्रुतान्तर्भावाच्च परमार्थतः परोक्षम्, संव्यवहारतस्तु प्रत्यक्षमिति स्थितम् // इति गाथार्थः॥१५॥ तदेवं ज्ञानपञ्चके यत् प्रत्यक्षं यच्च परोक्षं तद् दर्शितम्, सांप्रतं 'जं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाई' इति यदुक्तं प्राक्, तदुपजीव्य परः प्राह सामित्ताइविसेसाभावाओ मइसुएगया नाम। लक्खण-भेआदिकयं नाणत्तं तयविसेसे वि॥१६॥ [संस्कृतच्छाया:- स्वामित्वादिविशेषाभावात् मतिश्रुतैकता नाम। लक्षणभेदादिकृतं नानात्वं तदविशेषेऽपि॥] परः प्राह- ननु पूर्वं मति-श्रुतयोः स्वामि-कालादिभिस्तुल्यत्वमभिदधानैर्भवद्भिः स्वहस्ताङ्गाराकर्षणमनुष्ठितम्, यत एवं सति स्वामित्वादिभिर्विशेषाभावाद् मति-श्रुतयोरेकतैव प्राप्ता, न भेदः स्यात्। तथा च न ज्ञानपञ्चकसिद्धिः, धर्मभेदे हि वस्तूनां भेदः स्यात्, तदभेदे तु घट-तत्स्वरूपयोरिवाऽभेद एवं श्रेयानिति भावः। क्योंकि मानसिक ज्ञान अवग्रह आदि भेदों को (उन अट्ठाईस भेदों में से) पृथक् करना पड़ेगा, और ऐसा होने पर एक छठे ज्ञान को मानने का संकट खड़ा हो जाएगा। इसलिए, यह सिद्ध हुआ कि इन्द्रिय व मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान परनिमित्तक होने से परोक्ष है, मति व श्रुत में अन्तर्भूत होने से भी परमार्थतः परोक्ष है, किन्तु मात्र सांव्यवहारिक दृष्टि से वह प्रत्यक्ष (कहा जा सकता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 15 // (मति व श्रुत में लक्षण आदि की दृष्टि से भेद का निरूपण) - इस प्रकार; पांच ज्ञानों में जो प्रत्यक्ष है और जो परोक्ष है-उसका निदर्शन करा दिया गया। अब स्वामी, काल, कारण आदि की दृष्टि से मति व श्रुत की समानता का कथन पहले (गाथा सं. 85 में) कहा गया था, उसे दृष्टि में रख कर शंकाकार या जिज्ञासु की ओर से कथन (और आचार्य की ओर से उसका समाधान भी) प्रस्तुत किया जा रहा है (96) सामित्ताइविसेसाभावाओ मइसुएगया नाम / लक्खण-भेआदिकयं नाणत्तं तयविसेसे वि || ___ [(गाथा-अर्थः) (पूर्वपक्ष-) स्वामित्व, काल आदि की अपेक्षा से कोई विशेषता यानी भेद नहीं होने से मति व श्रुत की एकता बताई, किन्तु गई है। (उत्तरपक्ष-) किन्तु भले ही वे दोनों समान हों, लक्षण-भेद आदि की दृष्टि से (तो) उनमें नानात्व (भिन्नता) है।] . . व्याख्याः- किसी (जिज्ञासु या शंकाकार) ने कहा- आपने मति व श्रुत की स्वामी, काल आदि की अपेक्षाओं से तुल्यता पहले बताई, किन्तु वैसा करते हुए आपने अपने हाथ में जलते अंगारे ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------151
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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