SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवां अध्ययन कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्ग की साधना है- काया की ममता का त्याग कर अन्तर्मुखता में गतिशील होना। शरीर व आत्मा के भेदविज्ञान की साधना ही कायोत्सर्ग है। इसे 'व्रणचिकित्सा' भी कहते हैं। व्रण से तात्पर्य है- धर्म-साधना में होने वाली स्खलनाएं, जो व्रतों में अतीचार या दोष पैदा करने वाली होती हैं। इससे त्रैकालिक अतीचार-शुद्धि होती है (द्र. उत्तरा. 29/13) / यह आवश्यक एक प्रकार का 'प्रायश्चित्त' है जो पापकर्मों का शोधन करता है। इससे साधक को पाप के भारों से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य व सुख की अनुभूति होती है। छठा अध्ययन 'प्रत्याख्यान' आवश्यक है। इसका दूसरा नाम 'गुणधारण' भी है। सांसारिक भोगों का त्याग कर संयम-व्रत आदि गुणों को धारण करना 'प्रत्याख्यान' है। इसकी साधना से साधक दुष्ट प्रवृत्तियों से हट कर स्वयं को संयम-मार्ग में अग्रसर करता है। यह आवश्यक इच्छानिरोध-पूर्वक संवर आदि का साधन होता है (द्र. उत्तरा. 29/14) / इस आवश्यक क्रिया से आध्यात्मिक विशुद्धि, संयम-साधना में दृढ़ता और त्याग-वैराग्य में वृद्धि होती है। निष्कर्ष यह है कि सामायिक से समता, स्तव से वीतरागता, वंदन से विनयसम्पन्नता, प्रतिक्रमण से संसार-विरक्ति व अन्तर्मुखता, कायोत्सर्ग से त्यागवृत्ति व शरीरादि-अनासक्ति का प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार अनेकानेक सद्गुणों की अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सभी आवश्यक' क्रियाएं गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से सुवासित करती हैं। इन सभी क्रियाओं का सर्वांगीण विवेचन इस आगम 'आवश्यक सूत्र' में हुआ है। इसलिए इस आगम की महत्ता व उपादेयता स्वतःसिद्ध है। यही कारण है कि इस आगम पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति आदि अनेक व्याख्यात्मक ग्रन्थ रचे गए। आवश्यक की रचना व रचना-काल यह सूत्र अंगबाह्य है अतः गणधरों द्वारा रचित नहीं, अपितु किसी स्थविर या बहुश्रुत की ही कृति है। कुछ जैन विद्वान् यह मानते हैं कि यह एकाधिक आचार्यों की कृति है। [स्वनामधन्य पं. दलसुख मालवणिया जी तो इसे गणधर-रचित मानते हैं।] आचारांग टीका के एक वाक्य से यह भी संकेतित होता है कि इसके कुछ अध्ययन (श्रुतकेवली) आचार्य भद्रबाहु आदि एवं परवर्ती अनेक स्थविर आचार्यों की ज्ञान-निधि के प्रतिफलित रूप हैं। अत: निश्चय ही इसका वर्तमान रूप भगवान् महावीर के समय से ही प्रारम्भ होकर वि. सं. 5-6 शती तक पूर्णता को प्राप्त हो चुका था। पं. सुखलाल जी ने इसे ई. पू. चौथी शताब्दी तक रचित माना है। अतः सूत्र की अतिप्राचीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। यही कारण है कि भद्रबाहु (द्वितीय) ने सर्वप्रथम नियुक्ति की रचना इसी सूत्र पर की है। आवश्यक सूत्र पर रचित चूर्णि, नियुक्ति व भाष्य साहित्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है: 1. द्र. अनुयोग द्वार, मलधारी हेमचंद्र कृत टीका, पृ. 28 / 2. आवश्यकान्तर्भूतः चतुर्विंशतिस्तव आरातीयकालभाविना भद्रबाहुस्वामिना अकारि, (आचा. टीका, पृ.56)। RO208RB0BKe0RO900R [32] ROWROORORROR
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy