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________________ तेषां विशेषा धर्माः श्रोत्रग्राह्यत्वादयः चक्षुरादिवेद्यत्वादयश्च, तद्विषयेहा तदन्यविशेषेहा, किमत्र श्रोत्रग्राह्यत्वादयो धर्मा उपलभ्यन्ते, आहोस्विच्चक्षुरादिवेद्यत्वादयः? इत्येवंरूपो विमर्श इत्यर्थः, तदनन्तरं तु वर्जनं च तत्राऽविद्यमानरूपादिगतानां हेयधर्माणां चक्षुर्वेद्यत्वादीनाम, परिग्रहणं च तत्र गृहीतशब्दसामान्यगतानामुपादेयधर्माणां श्रोत्रग्राह्यत्वादीनाम्, इति वर्जन-परिग्रहणे त्यागाऽऽदाने। सामान्यं च तदन्यविशेषेहा च वर्जन-परिग्रहणे च सामान्य-तदन्यविशेषेहा-वर्जन-परिग्रहणानि तेभ्यस्ततः। 'से' तस्य श्रोतुः। अर्थावग्रहै कसमयेऽप्युपयोगबाहुल्यमापन्नं प्राप्तम्। तथाहि- प्रथमः सामान्यग्रहणोपयोगः यथोक्तेहोपयोगस्तु द्वितीयः, हेयधर्मवर्जनोपयोगस्तृतीयः, उपादेयधर्मपरिग्रहोपयोगश्चतुर्थः, इत्येवमर्थावग्रहैकसमयमात्रेऽपि बहव उपयोगाः प्राप्नुवन्ति / न चैतद् . युक्तम्, समयविरुद्धत्वात् / तस्माद् नार्थावग्रहे शब्दविशेषबुद्धिः, किन्तु ‘सद्देत्ति भणइ वत्ता' इत्यादि स्थितम् // इति गाथार्थः // 267 / / अथास्मिन्नेवाऽर्थावग्रहेऽपरवाद्यभिप्रायं निराचिकीर्षुराह अण्णे सामण्णग्गहणमाहु बालस्स जायमेत्तस्स। समयम्मि चेव परिचियविसयस्स विसेसविनाणं॥२६८॥ रूप आदि। उनके विशेष धर्म हुए- श्रोतृग्राह्यता (सुनने योग्य होना) आदि और चक्षु.आदि (इन्द्रियों) से वेद्य (ज्ञेय, ग्राह्य) होना आदि, (तदन्यविशेषेहा) इनके विषय में 'ईहा' अर्थात् वहां श्रोत्रग्राह्यता आदि धर्म उपलब्ध हो रहे हैं या 'चक्षु आदि वेद्यता' आदि उपलब्ध हो रहे हैं -इस प्रकार का विमर्श होना / उसके बाद, परित्याग, अर्थात् वहां अविद्यमान रूप आदि से जुड़े 'चक्षुर्वेद्यता' आदि हेय धर्मों क्रा त्याग, (इसके साथ ही) गृहीत शब्द सामान्य से जुड़े श्रोत्रग्राधृता आदि उपादेय धर्मों का उपादान (ग्रहण), इस प्रकार त्याग या ग्रहण, इस प्रकार सामान्य, तदन्यविशेष -ईहा, परित्याग व उपादानं -इन सब के कारण। (तस्य) -उस श्रोता के, एकसमयवर्ती अर्थावग्रह में भी उपयोगों की बहुलता (की दोषपूर्ण स्थिति) आ जाएगी। जैसे- प्रथम समय में सामान्य-ग्रहण सम्बन्धी उपयोग, पूर्वोक्त ईहा सम्बन्धी उपयोग दूसरा, हेय धर्म के त्याग से सम्बन्धित उपयोग तीसरा, उपादेय धर्म के ग्रहण से सम्बन्धित उपयोग चतुर्थ, इस प्रकार एकसमयवर्ती अर्थावग्रह में भी बहुत से उपयोगों का सद्भाव होने लगेगा। किन्तु ऐसा होना (या मानना) सिद्धान्तविरुद्ध होने के कारण युक्तिसंगत (उपादेय) नहीं है। इसलिए अर्थावग्रह में शब्दविशेष बुद्धि नहीं होती, किन्तु ('शब्द' इति भणति वक्ता) वक्ता (सूत्रकार) द्वारा कहा गया 'शब्द' यह पद शब्दसामान्य का वाचक है, इत्यादि (गाथा-253 में जो निरूपित किया गया है, वही सिद्धान्तरूप में) स्थिर हुआ | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 267 // ___ अब, इसी अर्थावग्रह में दूसरे (विरोधी) वादी की ओर से संभावित अभिप्राय (को प्रस्तुत करते हुए, बाद में उस) का निराकरण कर रहे हैं // 268 // अण्णे सामण्णग्गहणमाहु बालस्स जायमेत्तस्स | समयम्मि चेव परिचियविसयस्स विसेसविन्नाणं // Mar 390 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- TATAN
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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