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________________ [संस्कृतच्छाया:- तव बहुतरभेदाः भणति मतिर्भवति धृतिबहुत्वात् / भण्यते न जातिभेद इष्टो मम यथा तव // ] . ' अत्र प्रेरको भणति। किम्?, इत्याह- 'तुज्झमित्यादि'। इत्थमाचार्य! तव बहुतरभेदा मतिर्भवति। कुतः?, इत्याहधृतेर्धारणाया बहुत्वाद् बहुभेदत्वादित्यर्थः। धारणाया एकस्या अप्यविच्युति-वासना-स्मृतिलक्षणभेदत्रययुक्तत्वादवग्रहेहाऽपायैः सह . षड्भेदा मतिः प्राप्नोतीति भावः। अत्र प्रतिविधानमाह- 'भण्णईत्यादि'। भण्यतेऽत्रोत्तरम्- जाते/दो जातिभेदो व्यक्तिपक्ष इत्यर्थः, स इह धारणाविचारे मम नेष्टो नाभिप्रेतः, किन्तु धारणासामान्यरूपा जातिरेव ममाऽभिप्रेता। कस्य यथा?, इत्याह- यथा तव 'अवग्रहविषये' इति शेषः। इदमुक्तं भवति- यथाऽवग्रहो व्यञ्जनाऽर्थावग्रहभेदादुभयरूपोऽवग्रहसामान्यादेकस्त्वयाऽपीष्टः, अन्यथा मतेः पञ्चविधत्वप्रसङ्गात् / तथा त्रिरूपाऽपि धारणा तत्सामान्यादेकरूपैव। इति चतुर्विधैव मतिः, न बहुतरभेदा // इति गाथार्थः // 191 // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) आपके (मत में भी) मति अनेक भेदों वाली हो जाती है, क्योंकि धारणा के अनेक भेद हो जाते हैं। उत्तर दे रहे हैं- जैसे आपको (अवग्रह के विषय में) जाति-भेद अभीष्ट नहीं है, वैसे ही हमें भी (धारणा के विषय में जाति भेद) अभीष्ट नहीं है।] व्याख्याः - अब शंकाकार (पूर्वपक्षी) का कहना है। क्या कहना है? वह इस प्रकार है- (तव बहुतरभेदाः)। आचार्यवर! इस प्रकार तो आपके मत में भी मति के अनेकानेक भेद (मति के मान्य पांच भेदों से भी अतिरिक्त भेद) हो जाते हैं। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर-) बता रहे हैं- धृति या धारणा के बहुविध होने से (मति के अनेक भेद हो जाते हैं)। तात्पर्य यह है कि एक धारणा के भी अविच्युति, वासना, स्मृति जैसे तीन भेदों के साथ अवग्रह, ईहा व अपाय को मिलाने से मतिज्ञान के छः भेद हो जाते हैं। (अन्य मत के) उक्त (आक्षेपपूर्ण-) कथन का प्रत्युत्तर दे रहे हैं- (भण्यते)। इसका प्रत्युत्तर हमारी ओर से यह है कि जातिभेद यानी जातिगत भेद (अर्थात् एक ही जाति में होने वाले अनेक व्यक्तिगत भेदों का सद्भाव) जो होता है, वह धारणा की इस विचारणा में हमें अभीष्ट नहीं है (उन भेदों को हम उपेक्षित करते हैं), किन्तु धारणा-सामान्य रूप ही (एक भेद) हमें अभीष्ट है (और वैसा मान कर ही हम विचार कर रहे हैं, अतः अनेक भेद वाला दोष निरस्त हो जाता है)। यहां (कोई) दृष्टान्त (भी) है क्या? (उत्तर-दृष्टान्त है, उसे) बता रहे हैं- जैसे आपके मत में। 'अवग्रह के विषय में' इसे यहां (उत्तर में) जोड़ लेना चाहिए। (अर्थात् अवग्रह के विषय में, जैसे आपने जातिभेद को उपेक्षित किया है, वैसे ही हमने धारणा के विषय में जातिभेद को ध्यान में नहीं रखा है।) तात्पर्य यह है कि जैसे अवग्रह के व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह -ये भेद हैं, फिर भी आपके मत में जैसे द्विविध अवग्रह को अवग्रह सामान्य रूप में एक माना गया है, अन्यथा (अवग्रह को दो मानकर चलेंगे तो आपके मत में) मतिज्ञान चार प्रकार का हो जाएगा। उसी तरह (हमारे मत में) धारणा के तीन भेदों के होते हुए भी उसे एक माना गया है, अतः मति चतुर्विध ही ठहरती है, न कि बहुभेदों वाली (इस तरह, मतिज्ञान के छः भेद हो जाने का दोष- जो आपकी ओर से उठाया गया था- स्वतः निरस्त हो जाता है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 191 // ] Ma 282 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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