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________________ [संस्कृतच्छाया:- यः सामान्यग्राही स नैगमः संग्रहं गतोऽथवा। इतरो व्यवहारमितो यस्तेन समाननिर्देशः॥] अथवेति प्रकारान्तरेण समाधानमुच्यत इत्यर्थः। तत्र नैगमस्तावत् सामान्यं मन्यते विशेषांश्च / ततो यः सामान्यग्राही नैगमः स संग्रहं गतः प्राप्तोऽन्तर्भूत इति यावत्, इतरस्तु विशेषग्राही स व्यवहारनयमितः प्राप्तोऽन्तर्गतो यो नैगमनयस्तेन सह व्यवहारनयस्याऽयं समाननिर्देशः 'जं नेगमववहारा' इत्यादिना तुल्यनिर्देशः। ततश्च तेसिंतुल्लमयत्ते को णु विसेसो' इत्यादिना यदेकत्वं परेण प्रेरितं तदस्माकं न क्षतिमावहति, नैगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्वयेऽन्तर्भावस्येष्टत्वेन सिद्धसाधनादिति भावः। यद्येवं नैगमः संख्यायास्त्रुट्यति, तथा च सति षडेव नयाः प्रसजन्तीति चेत्।मौत्सुक्यं भजस्व, सर्वमत्रार्थे पुरस्ताद् वक्ष्यामः॥ इति गाथार्थः॥३९॥ [(गाथा-अर्थः) अथवा जो सामान्यग्राही नैगम है वह संग्रह नय में अन्तर्भूत है। और जो दूसरा (विशेषग्राही) नैगम है, वह व्यवहार में अन्तर्भूत है। इसलिए इनका समानरूप में निर्देश किया जाता है।] व्याख्याः- (यहां) अन्य प्रकार से समाधान प्रस्तुत किया जा रहा है, यह 'अथवा' से तात्पर्य है। इनमें जो नैगम नय है, वह 'सामान्य' को तो स्वीकार करता ही है, विशेष को भी स्वीकार करता है। इसलिए, जब नैगम सामान्यग्राही होता है, तब वह 'संग्रहन नय' रूपता को प्राप्त होता है, अर्थात् संग्रह नय में अन्तर्भूत हो जाता है, और जब वह अन्य रूप में, यानी विशेषग्राही होता है, तब वह व्यवहाररूपता को प्राप्त होता है अर्थात् व्यवहार नय में अन्तर्भूत हो जाता है, इसलिए नैगम नय के साथ व्यवहार नय की समानता का निर्देश किया जाता है। पूर्व में (37वीं गाथा में) 'यद् नैगमव्यवहारौ' -इत्यादि कथन द्वारा उन्हें तुल्य बताया (भी) गया है। इसलिए (गाथा-38 में) 'तयोः तुल्यमतयोः को नु विशेषः?' कहा, अर्थात् दोनों के समान होने पर भी इनमें आखिर विशेषता (अन्तर) ही क्या है? इत्यादि कथन द्वारा इन दोनों की एकता का कथन (किसी) अन्य (प्रश्नकर्ता) द्वारा किया गया है, उससे हमारे कथन में कोई क्षति नहीं होती, अर्थात् नैगम नय को संग्रह व व्यवहार नय में अन्तर्भूत किया जाना हमें भी (कथंचिद्) इष्ट है, इसलिए सिद्धान्त की पुष्टि ही . (प्रश्नकर्ता ने) की है- यह भाव है।। (प्रश्न-) यदि नैगम नय ऐसा है (अर्थात् वह संग्रह व व्यवहार नय में अन्तर्भूत हो सकता है) तब (नयों की जो निर्धारित सात संख्या मानी गई है, उस) संख्या टूटती है (अर्थात् तब नयों की संख्या छः ही रह जाएगी)। (उत्तर-) (अधिक) उत्सुक (उतावले) न हों, इस सम्बन्ध में सभी (अपेक्षित अन्य समाधानपरक) बातें हम आगे कहने वाले हैं। यह गाथा का अर्थ हुआ // 39 // Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 69 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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