________________ जइ सद्दबुद्धिमत्तयमवग्गहो तव्विसेसणमवाओ। नणु सद्दो नासद्दो, न य रूवाइ विसेसोऽयं // 254 // [संस्कृतच्छाया:- यदि शब्दबुद्धिमात्रमवग्रहः, तद्विशेषणमवायः। ननु शब्दो नाऽशब्दो न च रूपादि विशेषोऽयम्॥] भोः पर! यदि शब्दबुद्धिमात्रं 'शब्दोऽयम्' इति निश्चयज्ञानमपि भवताऽर्थावग्रहोऽभ्युपगम्यते, तद्विशेषणं तु तस्य शब्दस्य विशेषणं विशेषः 'शाल एवाऽयं शब्दः' इत्यादिविशेषज्ञानमित्यर्थः, अपायो मतिज्ञानतृतीयो भेदोऽङ्गीक्रियते। हन्त! तर्हि अवग्रहलक्षणस्य तदाद्यभेदस्याऽभावप्रसङ्गः, प्रथमत एवाऽवग्रहमतिक्रम्याऽपायाभ्युपगमात्। कथं पुनः शब्दज्ञानमपायः?, इति चेत्। उच्यते- तस्याऽपि विशेषग्राहकत्वात्, विशेषज्ञानस्य च भवताऽप्यपायत्वेनाऽभ्युपगतत्वात्। ननु 'शाङ्ख एवाऽयं शब्दः' इत्यादिकमेव तदुत्तरकालभावि ज्ञानं विशेषग्राहकं, शब्दज्ञाने तु शब्दसामान्यस्यैव (संगत) हो जाता है, और साथ ही 'वह नहीं जानता कि यह शब्द आदि कैसा है', तदनन्तर वह ईहा में प्रविष्ट होता है' -इस सारे कथन से भी कोई विरोध नहीं आता।'' पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथन को आचार्य (भाष्यकार) उपस्थापित कर, उसमें दोष इस प्रकार प्रदर्शित कर रहे हैं // 254 // जइ सद्दबुद्धिमेत्तयमवग्गहो तव्विसेसणमवाओ। नणु सद्दो नासद्दो, न य रुवाइ विसेसोऽयं // [ (गाथा-अर्थ :) यदि शब्द बुद्धि मात्र को अवग्रह, और तत्सम्बन्धी विशेष (निश्चयात्मक) ज्ञान को 'अवाय' कहा जाता है, तब तो (शब्द बुद्धि मात्र में भी) 'यह शब्द है, अशब्द नहीं है, क्योंकि वह रूप आदि नहीं है, अतः यह ज्ञान भी 'विशेष ज्ञान' ही है (इसलिए यह भी 'अपाय' ज्ञान ही कहा जाएगा, और 'अवग्रह' के लोप का ही प्रसंग हो जाएगा)।] व्याख्याः- हे भाई प्रतिपक्षी! यदि 'यह शब्द है' इस निश्चयात्मक शब्द बुद्धि मात्र को आप अर्थावग्रह के रूप में स्वीकार करते हैं, और उसी शब्द के बारे में 'यह शब्द शंख का ही है' -इस प्रकार के विशेषात्मक ज्ञान को मतिज्ञान के तृतीय ‘अपाय' के रूप में स्वीकार करते हैं, तो अफसोस! मतिज्ञान के अवग्रह-लक्षण प्रथम भेद का ही अभाव हो जाएगा, क्योंकि सर्वप्रथम ही अवग्रह के स्थान पर 'अपाय' का होना आपने मान लिया है। (प्रश्न-) शब्द ज्ञान 'अपाय' कैसे हुआ? उत्तर दे रहे हैं- क्योंकि वह ज्ञान-विशेष का ग्राहक हो गया, और 'विशेष' ज्ञान को आपने भी 'अपाय' रूप में स्वीकार किया है। (पूर्वपक्ष की ओर से कथन-) 'यह शब्द शंख का ही है' इत्यादि रूप में होने वाला उत्तरकालभावी जो ज्ञान है, वही विशेष-ग्राहक है, शब्दज्ञान में तो शब्द सामान्य ही प्रतिभासित होता है, अतः विशेष प्रतिभास कैसे हो सकता है? और (विशेष प्रतीति के अभाव में) 'अपाय' होने की प्रसक्ति कैसे हुई? (इस पूर्वपक्ष के कथन का) उत्तर दिया जा रहा है- (ननु इत्यादि)। यहां 'ननु' शब्द अक्षमा MAA 374 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------