________________ शब्दस्तेनावगृहीत इति यदुक्तं, तत्र 'शब्दः' इति वक्ता प्रज्ञापकः, सूत्रकारो वा भणति प्रतिपादयति, अथवा तन्मात्रं शब्दमात्रं रूपरसादिविशेषव्यावृत्त्याऽनवधारितत्वाच्छब्दतयाऽनिश्चितं गृह्णातीति। एतावतांशेन शब्दस्तेनावगृहीत इत्युच्यते, न पुनः - शब्दबुद्ध्या-'शब्दोऽयं' इत्यध्यवसायेन तच्छब्दवस्तु तेनाऽवगृहीतम्, शब्दोल्लेखस्याऽऽन्तर्मुहूर्तिकत्वात्, अर्थावग्रहस्य त्वेकसामयिकत्वादसंभव एवाऽयमिति भावः। यदि पुनस्त शब्दबुद्धिः स्यात्, तर्हि को दोषः स्यात्?, इत्याशक्य सूत्रकारः स्वयमेवं दूषणान्तरमाह 'जईत्यादि'। यदि पुनरर्थावग्रहे शब्दबुद्धिः शब्दनिश्चयः स्यात्, तदाऽपाय एवाऽसौ स्यात्, न त्वर्थावग्रहः, निश्चयस्याऽपायरूपत्वात्। ततश्चार्थावग्रहेहाभाव एव स्यात्, न चैतद् दृष्टम्, इष्टं च // इति गाथार्थः॥२५३॥ __ अत्राह पर:- ननु प्रथमसमय एवं रूपादिव्यपोहेन 'शब्दोऽयम्' इति प्रत्ययोऽर्थावग्रहत्वेनाऽभ्युपगम्यताम्, शब्दमात्रत्वेन सामान्यत्वात्। उत्तरकालं तु प्रायो माधुर्यादयः शङ्खशब्दधर्मा इह घटन्ते, न तु शाङ्गधर्माः खर-ककर्शत्वादय इति विमर्शबुद्धिरीहा, तस्माच्छाल एवाऽयं शब्द इति तद्विशेषस्त्वपायोऽस्तु / तथा च सति 'तेणं सद्देत्ति उग्गहिए'। इदं यथाश्रुतमेव व्याख्यायते। 'नो चेव णंजाणइ केवेस सद्दाइ, तओ ईहं पविसइ' इत्याद्यपि सर्वमविरोधेन गच्छतीति। तदेतत् परोक्तं सूरिः प्रत्यनुभाष्य दूषयति, तद्यथा व्याख्याः - 'उस (ज्ञाता) के द्वारा शब्द का अवग्रहण हुआ है' -यह जो कहा गया है, वह वक्ता, प्ररूपणाकार या सूत्रकार की ओर से है (न कि ज्ञाता की ओर से)। अथवा ('शब्द' के अवग्रहण से उनका तात्पर्य है कि) तन्मात्र यानी रूप-रस आदि विशेष रूप से जिसका निश्चय नहीं होता, ऐसे शब्द रूप से अनिश्चित शब्द मात्र (शब्दसामान्य) को (ज्ञाता) ग्रहण करता है। इतने ही अंश में शब्द का अवग्रह होना वहां बताया गया है, न कि शब्द बुद्धि से, अर्थात् 'यह शब्द ही है' इस अध्यवसाय (निश्चय) के साथ शब्द-पदार्थ को उसने ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि शब्दोल्लेख अन्तर्मुहूर्त काल का होता है. और चंकि अर्थावग्रह एक समय मात्र का होता है, अतः उसका वहां होना संभव नहीं है -यह भाव है। यदि यहां शब्द बुद्धि होना मान लिया जाय तो क्या दोष होगा? इस आशंका को दृष्टि में रखकर सूत्रकार स्वयं ही दोष (आक्षेप) का कथन कर रहे हैं- (यदि भवति इत्यादि)। यदि अर्थावग्रह में शब्दबुद्धि यानी शब्द सम्बन्धी निश्चय हो, तब तो वह 'अपाय' (की कोटि में परिगणित) होगा, न कि अर्थावग्रह रूप से, क्योंकि निश्चय तो 'अपाय' रूप होता है। और (अपाय हो गया तो) अर्थावग्रह व ईहा का अभाव ही हो जाएगा, किन्तु ऐसा न तो देखा जाता है और न ही (हम सब को ऐसा मानना) अभीष्ट होगा // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 253 // यहां पूर्वपक्ष ने (पुनः) कहा- “आप ऐसा मान लें कि प्रथम समय में ही रूप आदि से रहित 'यह शब्द है' यह प्रतीति अर्थावग्रह रूप से होती है, शब्द मात्र रूप से वह ‘सामान्य' ज्ञान ही है। किन्तु परवर्ती समय में 'शंख शब्द के माधुर्य आदि धर्म यहां प्रायः घटित होते हैं, और धनुष के शब्द में रहने वाले तीक्ष्णता व कर्कशता आदि धर्म यहां घटित नहीं होते' -इस प्रकार की विमर्शात्मक बुद्धि "ईहा' होती है, उसके बाद 'यह शंख का ही शब्द है, न कि धनुष का' -यह विशेष ज्ञान 'अपाय' होता है। इस प्रकार, उस (ज्ञाता) के 'शब्द' का अवग्रह होता है -इस कथन का शाब्दिक व्याख्यान ---- विशेषावश्यक भाष्य - ---- 373