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________________ जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः (आ. सिद्धसेन)। त्वदागमा एव सतां प्रमाणम् (आ. हेमचंद्र)। ब्रूमः त्वदन्यागममप्रमाणम् (आ. हेमचंद्र)। शास्त्रकारों के अनुसार जो श्रमण (या आचार्य भी) आगम या श्रुत को 'प्रमाण' नहीं मानता, वह संघ के लिए स्वयं 'अप्रमाण' (अप्रमाणिक, अविश्वसनीय, उपेक्षणीय) होता है (द्र. बृहत्कल्पभाष्य, 3641) / 'आगम' के अन्य पर्याय हैं- श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञापना, उपदेश, प्रज्ञापना, तंत्र, शास्त्र, प्रवचन (द्र. अनुयोगद्वार, 51, आवश्यक-चूर्णि, 1, पृ. 92) / 'आगम' व 'सूत्र' के नियुक्तिपरक अर्थ आगम का नियुक्तिपरक अर्थ है- 'आ' अर्थात् व्यापक रूप से, पूर्णतया, यथार्थ रूप में, 'गम' अर्थात् ज्ञान कराने वाला (नन्दीसूत्रवृत्ति, आवश्यक-मलयगिरिवृत्ति)। एक अन्य अर्थ भी किया गया है- 'आ' यानी आचार्य परम्परा से, 'गम' अर्थात् प्राप्त (सिद्धसेनगणीकृत भाष्यानुसारिणी टीका, पृ. 87) / इसी प्रकार आगमपर्यायवाची 'सुत्त' शब्द के सूत्र, सूक्त आदि कई पर्याय मान्य हैं। उनमें 'सूत्र' की भी कई नियुक्तियां की गई हैं(1) जो सूचित करता है, (2) जो स्यूत अर्थात् अर्थ से (संयुक्त) करता है, (3) जो अर्थ का प्रसव (प्रकटीकरण) करता है, (4) जो अर्थ का अनुसरण करता है, (5) जो अर्थपदों का सीवन करता है, अर्थात् उन्हें जोड़ता है (द्र. बृहत्कल्पभाष्य- 311-314, तथा वृत्ति।) वह 'सूत्र' है। 'सुत्त' का अर्थ है- सु=अच्छी तरह, उक्त-कहा गया। इस प्रकार 'आगम' से तात्पर्य ऐसे अर्थगाम्भीर्य-युक्त शास्त्र से है जिसमें सर्वज्ञ वक्ता द्वारा किया गया पदार्थों का निरूपण हो और जो श्रुति-परम्परा या आचार्य-परम्परा के माध्यम से कालान्तर में क्रमशः प्रवहमान हो। . . 'आगम' की मौलिक विशेषता वस्तुतः कौन-सा शास्त्र ‘आगम' है या नहीं है, इसकी परीक्षा भी उसकी मौलिक विशेषता के आधार पर की जा सकती है। इसलिए शास्त्रों की कुछ मौलिक विशेषताओं का भी निर्देश किया गया है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार उस शास्त्र को 'आगम' कहा जाता है जो किसी 'आप्त' पुरुष द्वारा उपदिष्ट हो और जिसमें असन्मार्ग का निराकरण और स्वभावतः प्रत्यक्षादि प्रमाण से अविरुद्ध तात्त्विक निरूपण हो (रत्नकरंड श्रावकाचार, 9) 'आप्त' का अर्थ है- रागादि सर्वदोषरहित सर्वज्ञ तीर्थंकर' जैसा वीतराग व्यक्तित्त्व (रत्नकरंड-5)। विशेषावश्यक . भाष्य (गाथा-559) में आगम के मौलिक स्वरूप को इस प्रकार व्यक्त किया गया है सासिञ्जइ जेण तयं सत्त्थ तं चाविसेसियं नाणं। आगम एव य सत्थं आगमसत्थं तु सुयनाणं। अर्थात् आगम या श्रुतज्ञान वह होता है जिससे समीचीन शिक्षा प्राप्त होती है और विशेष ज्ञान की उपलब्धि होती है। यहां 'ज्ञान' पद का भी शास्त्रसम्मत अर्थ समझना अपेक्षित है। जिससे तत्त्व का यथार्थ स्वरूप 'RB0BARB0BROBROOR [21] RO0BROOBROOBROOK
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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