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________________ उक्त भाष्य पर रचित शिष्यहितावृत्ति (टीका) संस्कृत में, वस्तुतः प्रौढ़ संस्कृत में रची गई, किन्तु परवर्ती काल में यह कुछ उन विशिष्ट विद्वानों के लिए ही सुबोधगम्य रह गई जो संस्कृत-प्राकृत भाषा में तथा जैन तत्त्वज्ञान में गहरी पैठ रखते हों। इसलिए प्राकृत-संस्कृत-अनभिज्ञ तथा सामान्य दार्शनिक ज्ञान वाले स्वाध्यायप्रेमी व्यक्तियों के लिए यह भी सुगम नहीं रह गई। अत: 1980 ई. में इसका गुजराती भावानुवाद अहमदाबाद से 'भद्रंकर प्रकाशन' द्वारा किया गया। इस भावानुवाद के कर्ता थे- शाह चुन्नीलाल हुकुमचन्द, अहमदाबाद। चूंकि यह भावानुवाद था, शब्दशः या वाक्यशः अनुवाद नहीं था, और चूंकि यह गुजराती भाषा में था, अतः हिन्दी में इसका प्रामाणिक अनुवाद प्रस्तुत करने की आवश्यकता विद्वत्समाज में उठती रहीं। इस सन्दर्भ में कुछ यत्र-तत्र प्रयास भी हुए, किन्तु वे मूर्त रूप प्राप्त नहीं कर पाए। . इस सम्बन्ध में स्थानकवासी परम्परा के ख्यातनामा, जैन शासनसूर्य, आचार्यकल्प गुरुदेव मुनिश्री रामकृष्ण जी महाराज का गम्भीर चिन्तन चला और उन्होंने इस चिन्तन को क्रियान्वित करने हेतु एक रूपरेखा बनाई और तदनुरूप कार्य प्रारम्भ हो गया। पूज्य गुरुदेव की आज्ञा-कृपा से मैंने इस कार्य में स्वयं रुचि ली तथा सुयोग्य विद्वानों के परामर्श का लाभ लेते हुए उक्त कार्य को निरन्तर आगे बढ़ाया, जिसके फलस्वरूप यह प्रकाशन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो पा रहा है। सम्पूर्ण मूल भाग (नियुक्ति, भाष्य व संस्कृत टीका) के साथ हिन्दी अनुवाद को, उसकी विशालता के कारण, एक ही खण्ड में प्रस्तुत करना समुचित नहीं प्रतीत हुआ, इसलिए उसे अनेक खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया, उनमें यह प्रथम खण्ड (जो आवश्यक नियुक्ति की प्रथम तीन गाथाओं तक तथा भाष्य की 303 गाथाओं तक है) पाठकों के समक्ष है। .. प्राचीन आगमिक परम्परा एवं परवर्ती आगमिक व्याख्यान की क्रमिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थराज विशेषावश्यकभाष्य' के निर्माण की सर्वागीण पृष्ठभूमि ज्ञात हो सके, तथा इस ग्रन्थ के उपजीव्य ग्रन्थों व उनसे सम्बद्ध आचार्यों के वैदुष्य व विशिष्ट योगदान को रेखांकित किया जा सके -इस दृष्टि से यहां पाठकों के लाभार्थ, (श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परानुरूप) कुछ आवश्यक परिचयात्मक विवरण देना प्रासंगिक प्रतीत होता है। [विस्तार-भय से, दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं का निरूपण करना संभव नहीं है। जैन आगमों की प्रमाणता एवं महत्ता व उपयोगिता प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है, दुःख से छूटना चाहता है। दुःखों का मूल कारण 'अज्ञान' है, अत: सज्ज्ञान का प्रकाश ही प्राणी को सन्मार्ग-सदाचार का मार्ग दिखा सकता है। इस दृष्टि से सर्वज्ञ तीर्थंकर की वाणी की उपयोगिता स्वतः स्पष्ट है। दैनिक जीवन, नैतिक मर्यादा, अध्यात्म-साधना आदि सभी क्षेत्रों में दिशानिर्देशक सिद्धान्तों का निर्धारण 'आगमों' के आलोक में ही सम्भव है। विशेषकर अनगार-श्रमणों के लिए तो 'आगम' एक नेत्र के समान होता है (आगमचक्खू साहू- प्रवचनसार, 3/34) / इसी दृष्टि से आचार्यों ने आगम को सूक्ष्मअतीन्द्रिय पदार्थों के साक्षात्कार हेतु 'तीसरा नेत्र' भी बताया है- (सुयं तइयचक्खू, बृहत्कल्पभाष्य- 1154, सूक्ष्मव्यवहितादिषु अतीन्द्रियार्थेषु तृतीयचक्षुःकल्पं श्रुतम्- बृ. क. भा. वृत्ति) / अत: जैन आचार्यों ने स्पष्ट उद्घोष किया कि जैन आगम या जिन-वाणी ही सर्वत्र प्रमाण' है, अन्य सब (असर्वज्ञ-वचन) 'अप्रमाण' हैं ROOBAROORBOORBOOR [20] ROORORSCROpecre0CR
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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