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________________ | भाष्यकार जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण जैन आगमों के भाष्यकारों में संघदास गणि तथा जिनभद्र गणी क्षमाक्षमण -ये दो आचार्य प्रमुख हैं। इनमें जिनभद्रगणि का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। इनके जीवन-वृत्त आदि के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्र अपने जीवनकाल में इतनी ख्याति अर्जित नहीं कर पाये और यही कारण है कि उनके जीवन की विशिष्ट घटनाओं और विस्तृत पारिवारिक विवरणों का क्रमबद्ध उल्लेख नहीं प्राप्त होता। उनके कृतित्व व वैदुष्य का साक्षात्कार उनके द्वारा रचित ग्रंथों के अनुशीलन से होता है। उनके संबंध में उत्तरवर्ती कुछ विशिष्ट आचार्यों ने अल्प उल्लेख किया है, उन उल्लेखों में कुछ-एक विरोधपूर्ण व संदिग्ध भी हैं। उदाहरणार्थ- (15-16 वीं शती की) पट्टावलियों में इन्हें आचार्य हरिभद्र का पट्टधर शिष्य बताया गया है जो नितान्त असत्य है, क्योंकि जिनभद्रगणी और आ. हरिभद्र में करीब एक शती का अन्तर प्रमाणसिद्ध है। ____ अंकोट्टक (अकोटा), नामक ग्राम में कुछ मूर्तियां (विद्वान् श्री यू. पी. शाह को) प्राप्त हुई हैं जिन पर "निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य'- ऐसा उल्लिखित है। इसलिए यह माना जाता है कि ये 'निवृत्तिकुल' से सम्बद्ध थे। इसी कुल को सिद्धर्षि तथा नवांगीटीकाकार आ. शीलांक (वि. 9-10 शती) जैसे विद्वानों व आचार्यों को प्रस्तुत करने का गौरव प्राप्त है। इस कुल की परम्परा का प्रारम्भ आ. वज्रसेन के शिष्य 'निवृत्ति' से हुआ माना जाता है। इसी आधार पर इसे आर्य सुहस्ती की परम्परा में हुए वज्रसेन की शाखा से सम्बद्ध माना जाता है। पट्टावलियों के अनुसार आचार्य वज्रसेन –जो भगवान् महावीर के 17 वें पाट पर स्थित थे- के चार (श्रेष्ठिपुत्र) मुनि शिष्य थे- (1) नागेन्द्र (2) चन्द्र (3) निवृत्ति, और (4) विद्याधर / इनमें तीसरे 'निवृत्ति' से निवृत्तिकुल का प्रारम्भ हुआ। अन्य तीनों से भी अलग-अलग कुल भी अस्तित्व में आए श्रद्धा व आदर के भाजन : क्षमाश्रमण .. अधिकतया इनके नाम के आगे क्षमाश्रमण' विशेषण प्रयुक्त हुआ है। वाचानाचार्य विशेषण या उपाधि भी इनके नाम के साथ प्रयुक्त की गई है। वाचनाचार्य व क्षमाश्रमण - इन दोनों को पर्याय रूप में भी माना जाता है। शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति के रचयिता आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने इन्हें 'क्षमाश्रमण' कहकर इनका गुणगान करते हुए कहा है कि ये आवश्यक-भाष्य रूपी अमृत के सागर एवं गुणरत्नाकर हैं।" उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनके लिए भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपाथोधि, प्रशस्तभाष्यसस्यकाश्यपीकल्प, दलितकुवादिप्रवाद, परमागमपारीण, दुःषमान्धकारनिमग्नजिनवचनप्रदीपप्रतिम, त्रिभुवनजनप्रथितप्रवचनोपनिषद्वेदी, 66. नागेन्द्र-चंद्र-निवृत्ति-विद्याधराख्यान् चतुरः सकुटुम्बान् इभ्यपुत्रान् प्रव्राजितान्, तेभ्यश्च स्वस्वनामांकितानि चत्वारि कुलानि संजातानि (तपागच्छ-पट्टावली, भा. 1, स्वोपज्ञ वृत्ति)। 67. आवश्यकप्रतिनिबद्धगभीरभाष्य-पीयूषजन्मजलधिर्गुणरत्नराशिः / ख्यातः क्षमाश्रमणतागुणतः क्षितौ यः सोऽयं गणिर्विजयते जिनभद्रनामा (शिष्यहिता, मंगलाचरण, पद्य 2) / @RecRORSCR@@cROBR [53] Re0BROBCROBCROOR
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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