________________ इसके बाद, आर्य रक्षित द्वारा अनुयोग-विभाजन सम्बन्धी निरूपण के बाद, निन्हवों का निरूपण है। यहां यह ज्ञातव्य है कि नियुक्ति में सात निन्हवों का ही निरूपण है, किन्तु भाष्यकार ने 'शिवभूति' वोटिक नामक एक अन्य निन्हव को जोड़ कर आठ निन्हवों का निरूपण किया है। ये निन्हव जिनपरम्परा से जुड़े हुए होकर भी, उसे मान्यता देते हए भी, किसी विषय-विशेष के संदर्भ में अपना स्वच्छन्द व विरुद्ध अभिमत प्रकट करते हैं। अतः दार्शनिक परम्परा के ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से इस निरूपण की महती उपयोगिता है। इसके बाद सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का प्रारम्भ होता है और नमस्कार की 11 द्वारों से विवेचना की गई है। यहीं से इसी क्रम से सामायिक सूत्र के मूल पदों की व्याख्या सम्पन्न होती है। भाष्यकार की आगम-परम्परा के प्रति विशेष अनुरक्ति दृष्टिगोचर होती है। जैसे, केवली को ज्ञान-दर्शन युगपद् होते हैं या क्रमिक रूप से -इस विषय में श्वेताम्बर-दिगम्बर मान्यता परस्पर भिन्न है। दिगम्बर परम्परा दोनों की युगपत्-भाविता मानती है। आचार्य सिद्धसेन गणी कृत सन्मतितर्क में भी युगपद्भाविता का निरूपण किया गया है। भाष्यकार ने अपने ग्रन्थों में दोनों (ज्ञान व दर्शन) की क्रमिकता का समर्थन कर आगमिक मान्यता को स्पष्ट किया है और उस मान्यता को सुदृढ़ आधार भी दिया है। आगमिक परम्परा के पोषण की दृष्टि से ही उन्होंने 'मल्लवादी' आचार्य के मत का भी खण्डन किया है। इसी तरह, आगम परम्परा इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को परोक्ष कोटि में मानती है, किन्तु अन्य भारतीय दर्शन इसे प्रत्यक्ष मानते हैं। भाष्यकार ने इन्द्रियप्रत्यक्ष को 'संव्यवहार प्रत्यक्ष' की परिधि में लाकर एक ऐसी परम्परा का सत्रपात किया जो दोनों परम्पराओं के लिए एक समन्वय-सेत बनी है। समग्र दार्शनिक विवेचनों में भाष्य की अप्रतिम तर्कशक्ति व प्रतिभा का स्पष्ट साक्षात्कार होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विशेषावश्यक भाष्य में जैन दर्शन, तत्त्वज्ञान, जैन आचार आदि से सम्बद्ध विविध विषयों पर विस्तृत, सूक्ष्म, सुव्यवस्थित, सयुक्तिक व सर्वांगीण निरूपण है, जिससे यह भाष्य उत्तरवर्ती आचार्यों, चिन्तकों, ग्रन्थप्रणेताओं के लिए एक प्रामाणिक, मार्गदर्शक व आधारभूत ग्रन्थ बन गया है। इस ग्रन्थ की महत्ता को स्वयं भाष्यकार ने इन शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है सव्वाणुओगमूलं भासं सामाइअस्स सोऊण। होइ परिकम्मिअमई जोग्गो सेसाणुओगस्स। अर्थात् समस्त अनुयोगों पर आधारित इस सामायिक भाष्य का श्रवण कर शिष्य की बुद्धि परिमार्जित (स्वच्छ, निर्मल, संशयादि रहित) हो जाती है तथा उसमें अन्य अनुयोगों को समझने की योग्यता भी विकसित हो जाती है। 1. ठाणांग आदि आगमों में सात निन्हव ही बताये गये हैं / परवर्ती उत्तराध्ययन-नियुक्ति में भी वोटिक निन्हव का निर्देश नहीं प्राप्त है। पं. दलसुखभाई मालवणिया (द्र. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. 9) के मत में आठवें निन्हव को परवर्ती काल में जोड़ा गया है। 65. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-3603 RB0BROOBROOBROOR [52] ReDROPOROPOROR