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________________ इदमुक्तं भवति- न स्वप्ने योषित्प्राप्तिपूर्विका विशिष्टा सुरतक्रिया, नापि विशिष्टं गर्भाऽऽधानादिकं तत्फलं; या तु तीव्रवेदोदयाविर्भूताऽध्यवसायमात्रकृता निधुवनक्रिया, सा व्यञ्जनविसर्गमात्ररूपेणैव फलेन, न विशिष्टेन, इति तदपेक्षया सां 'विफला' इत्युच्यते। अतो यथोक्तविशिष्टफलाभावात् फलमात्राद् योषित्प्राप्त्यसिद्धेश्च न प्राप्यकारिता मनस इति भावः। इति गाथार्थः // 230 // पुनरप्याह पर: नणु सिमिणओ वि कोई सच्चफलो फलइ जो जहा दिट्ठो। ननु सिमिणम्मि निसिद्धं किरिया किरियाफलाई च॥२३१॥ [संस्कृतच्छाया:- ननु स्वप्नकोऽपि कश्चित् सत्यफलः फलति यो यथा दृष्टः। ननु स्वप्ने निषिद्ध क्रिया क्रियाफलानि च॥] ननु स्वप्नोऽपि कश्चित् सत्यं फलं यस्याऽसौ सत्यफलो दृश्यते। कः?, इत्याह- यो यथा येन प्रकारेण राज्यलाभादिना दृष्टस्तेनैव फलति- राज्यादिफलदायको भवतीत्यर्थः, तत् किमिति स्वप्नोपलब्धं मनसो मेरुगमनादिकं सत्यतया नेष्यते? इति भावः। अनोत्तरमाह-'नन्वित्यादि'।नन्वयुक्तोपालम्भोऽयम्, सर्वथा स्वप्नसत्यत्वस्याऽस्माभिरनिषिध्यमानत्वात्। तर्हि किं निषिध्यते?, इत्याह तात्पर्य यह है कि स्वप्न में किसी स्त्री की प्राप्ति (स्पर्श) के साथ कोई विशिष्ट सुरंत-क्रिया नहीं होती, और न ही उनका गर्भाधान आदि कोई विशिष्ट फल ही (प्रत्यक्ष होता) है। किन्तु तीव्र 'वेद' (विपरीत लिङ्ग के साथ रति-इच्छा) के उदय के कारण उत्पन्न अध्यवसाय मात्र से मैथन-क्रिया सम्पन्न होती है, वह मात्र वीर्य-क्षरण (सामान्य) फल के साथ ही सफल होती है, किन्तु विशिष्ट फल से युक्त नहीं होती, इस अपेक्षा से उसे विफल (फलरहित)। कहा जाता है। इसलिए पूर्वोक्त विशिष्ट फल का सद्भाव न होने से, मात्र (सामान्य) फल के आधार पर स्त्री-स्पर्श होना सिद्ध नहीं होता। अतः मन की प्राप्यकारिता (भी) नहीं सिद्ध होती -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 230 // अब, पूर्वपक्षी पुनः (अपने मत को पुष्ट करने के लिए) कह रहा है // 231 // नणु सिमिणओ वि कोई सच्चफलो फलइ जो जहा दिह्रो / ननु सिमिणम्मि निसिद्धं किरिया किरियाफलाइं च // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) कोई-कोई स्वप्न भी सत्यफल वाला होता है, जो जैसा देखा जाता है उसी रूप में फलित होता है। (उत्तर-) हमने स्वप्न में (मेरुगमनादि) क्रिया और उस क्रिया के (थकावट आदि) फल -इन दोनों (के सत्य होने) का ही निषेध किया है (न कि समस्त स्वप्नों की सत्यता का)] व्याख्याः- (पूर्वपक्षी की ओर से शंका-) किसी-किसी स्वप्न का भी तो फल सत्य (यथार्थ) होता देखा जाता है। कौन सा स्वप्न? उत्तर दिया- (यः यथा)। जो जिस प्रकार से, राज्य लाभ आदि रूप में देखा गया, उसी रूप में फलित (घटित) होता है, अर्थात् राज्य-लाभ देने वाला (सिद्ध) होता है। तात्पर्य यह है कि तब आप (पूर्वपक्षी, स्वप्न में) मन की मेरु-गमनादि क्रिया को भी सत्य क्यों नहीं मान लेते? (पूर्वोक्त शंका का उत्तर भाष्यकार) दे रहे हैं- (ननु स्वप्ने इत्यादि)। 'ननु' यह पद यह Via 338-------- विशेषावश्यक भाष्य --------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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