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________________ तथाहि जं सव्वहा न वीसुं सव्वेसु वि तं न रेणुतेल्लं व। पत्तेयमणिच्छंतो कहमिच्छसि समुदए नाणं?॥२०१॥ [संस्कृतच्छाया:- यत् सर्वथा न विष्वक् सर्वेष्वपि तद्न रेणुतैलमिव। प्रत्येकमनिच्छन् कथमिच्छसि समुदये ज्ञानम्? // ] यद् वस्तु सर्वथा सर्वप्रकारैर्विष्वक् पृथक् नास्ति तत् समुदायेऽपि नाऽभ्युपगन्तव्यम्, यथा रेणुकणनिकरे प्रतिरेणुकमविद्यमानं तैलम्; एवं चेत्, तर्हि त्वमपि प्रत्येकमनिच्छन् कथं समुदये ज्ञानमिच्छसि?। इदमुक्तं भवति- यदीन्द्रियविषयसंबन्धस्य प्रथमसमयादारभ्य व्यञ्जनावग्रहसंबन्धिनोऽसंख्येयान् समयान् यावत् प्रतिसमयं पुष्टिमाबिभ्रती ज्ञानमात्रां काञ्चिदपि नेच्छसि, तर्हि चरमसमयशब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धेन संपूर्णे समुदायेऽपि कथं तामिच्छसि? चरमसमयशब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धे यदर्थावग्रहज्ञानमभ्युपगम्यते, तदपि प्रत्येकमसच्चरम-सिकताकणे तैलवद् न प्राप्नोतीति भावः। तस्मात् तिलेषु तैलवत्, सर्वेष्वपि समयेषु प्रत्येकं यच्च यावच्च ज्ञानमस्तीति प्रतिपत्तव्यम्॥ इति गाथार्थः॥२०१ / / और (इसी क्रम में अन्य युक्ति भी दे रहे हैं) 201 // जं सव्वहा न वीसुं सव्वेसु वि तं न रेणुतेल्लं व / पत्तेयमणिच्छंतो कहमिच्छसि समुदए नाणं? // [(गाथा-अर्थ :) जो वस्तु कहीं पृथक्-पृथक् रूप से उपलब्ध न हो तो वह समस्त (समुदाय) में भी नहीं होती, जैसे धूल के कणों में तैल / (व्यञ्जनावग्रह के) प्रत्येक (समय) में ज्ञान को नहीं मान कर समुदाय में उसे कैसे मान रहे हैं?] व्याख्याः- जो वस्तु कहीं पृथक्-पृथक् रूप से किसी भी रूप में नहीं पाई जाती है तो उसका सद्भाव समुदाय में भी नहीं माना जाता, उसी तरह जैसे प्रत्येक रेणु (धूल कण) में तैल नहीं पाया जाता है तो वह रेणुओं के समूह में भी नहीं मिलता। अब, जब ऐसी वस्तुस्थिति है तो आप भी (एक तरफ) प्रत्येक (व्यअनावग्रह-क्षण) में (ज्ञान का सद्भाव) नहीं मानते हैं, किन्तु (दूसरी तरफ) समुदाय में ज्ञान का सद्भाव मानते हैं, यह कैसे? तात्पर्य यह है कि यदि इन्द्रियों व विषय का जो सम्बन्ध है, उसके प्रथम समय से ही व्यअनावग्रह के असंख्येय समयों तक प्रतिसमय संपुष्ट हो रही किसी भी ज्ञान-मात्रा के सद्भाव से आप इन्कार करते हैं तो चरम समयवर्ती 'शब्दादि इन्द्रिय विषय सम्बन्ध' से सम्पूर्ण समुदाय में ही उसे (ज्ञानमात्रा को) क्यों नहीं मानना चाहते? चरमसमयवर्ती जो शब्दादिविषयद्रव्य-सम्बन्ध है, उसमें अर्थावग्रह ज्ञान का होना आप स्वीकारते हैं, वह उसी प्रकार संगत नहीं है जैसे बालू के प्रत्येक कण में तैल नहीं होता तो समुदाय में भी वह प्राप्त नहीं होता -यह भाव है। इसलिए, तिलों में (प्रत्येक तिल में) तैल की तरह, सभी समयों में जितने भी प्रत्येक (व्यअनावग्रह) हैं, उन सब में ज्ञान का सद्भाव है- ऐसा मानना ही चाहिए // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 201 // . . Ne, 294 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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