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________________ सद्भावतस्तत्र स्थितं भृतकदारकादौ तर्हि कथं वर्तते? इत्याह- तदर्थनिरपेक्षं तस्येन्द्रादिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः परमैश्वर्यादिस्तस्य निरपेक्षं संकेतमात्रेणैव तदर्थशून्ये भृतकदारकादौ वर्तते, इति पर्यायानभिधेयम्, स्थितमन्यार्थे, अन्वर्थे वा। तदर्थनिरपेक्षं यत् क्वचिद् भृतकदारकादौ इन्द्राधभिधानं क्रियते तद् नाम, इतीह तात्पर्यार्थः। प्रकारान्तरेणाऽपि नाम्नः स्वरूपमाह- यादृच्छिकं चेति, इदमुक्तं भवति- न केवलमनन्तरोक्तम्, किन्त्वन्यत्राऽवर्तमानमपि यदेवमेव यदृच्छया केनचिद् गोपालदारकादेरभिधानं क्रियते, तदपि नाम, यथा डित्थो डवित्थ इत्यादि। इदं चोभयरूपमपि कथंभूतम्?, इत्याह- यावद् द्रव्यं च प्रायेणेति- यावदेतद्वाच्यं द्रव्यमवतिष्ठते तावदिदं नामाऽप्यवतिष्ठत इति भावः। किं सर्वमपि?, न, इत्याह-प्रायेणेति, मेरु-द्वीप-समुद्रादिकं नाम प्रभूतं यावद्रव्यभावि दृश्यते, किञ्चित् त्वन्यथाऽपि समीक्ष्यते, देवदत्तादिनामवाच्यानां द्रव्याणां विद्यमानानामप्यपरापरनामपरावर्तस्य लोके दर्शनात्। सिद्धान्तेऽपि यदुक्तम्- "नामं आवकहिअंति" (नाम यावदर्थिकम् इति) तत् प्रतिनियतजनपदादिसंज्ञामेवाऽङ्गीकृत्य, यथोत्तराः कुरव इत्यादि। तदेवं प्रकारद्वयेन नाम्नः स्वरूपमत्रोक्तम्, एतच्च तृतीयप्रकारस्योपलक्षणम्, पुस्तक-पत्र-चित्रादिलिखितस्य वस्त्वभिधानभूतेन्द्रादिवर्णावलीमात्रस्याऽप्यन्यत्र नामत्वेनोळत्वादिति। (प्रश्न-) यदि शचीपति में ही उस (नाम) का सद्भाव है तो नौकर या बालक में फिर उसका सद्भाव कैसे है? इसलिए (उत्तर में) कहा- इन्द्र आदि नामों का जो परमैश्वर्य आदि (व्युत्पत्तिपरक) अर्थ है, उससे यह निरपेक्ष रहता है और उस अर्थ से शून्य (विवक्षित) नौकर या बालक आदि में उसका सद्भाव होता है, अतः वह (इन्द्र के) पर्यायों से अभिधेय नहीं होता। तात्पर्य यह है कि चाहे वह अन्य पदार्थ में या फिर अन्वर्थ में स्थित (व्यवहृत) हो, किन्तु (वाच्य या विवक्षित वस्तु का) किया गया नामकरण नौकर या बालक आदि (वाच्य या विवक्षित) अर्थ में निरपेक्ष रूप से (ही) रहता है। अन्य प्रकार भी 'नाम' का स्वरूप बता रहे हैं- यादृच्छिकम् / तात्पर्य यह है कि पहले कहे गये स्वरूप वाला ही नहीं, अपितु (कभी-कभी) अन्यत्र वर्तमान न होता हुआ भी किसी के द्वारा मनमर्जी से ग्वाले या बालक का नामकरण कर दिया जाता है, जैसे डित्थ, डवित्थ आदि, वह भी 'नाम' है। . पूर्वोक्त (अर्थात् अन्यार्थ में विद्यमान तथा यादृच्छिक-इन) दोनों प्रकार के नामों की और क्या विशेषता है? इस (जिज्ञासा के उत्तर के) लिए कहा- यावद् द्रव्यं च प्रायेण | तात्पर्य यह है कि जब तक यह वाच्य द्रव्य स्थित रहता है, तभी तक इस (नाम) की अवस्थिति रहती है। (प्रश्न-) क्या सभी नाम ऐसे होते हैं? (उत्तर-) नहीं। इसीलिए कहा-प्रायेण / मेरु, द्वीप, समुद्र आदि के प्रभूत (अधिकांश) नाम ऐसे हैं, जो द्रव्यस्थिति तक (शाश्वत) रहते हैं, किन्तु कुछ अन्य स्वरूप वाले (अशाश्वत) भी देखे जाते हैं। (जैसे कि) देवदत्त आदि नामों से वाच्य द्रव्यों के रहते हुए भी दूसरे-दूसरे नामों के परिवर्तित होते रहने को लोक में देखा जाता है। सिद्धान्त में भी जो कहा गया है कि नाम 'यावदर्थिक' (अर्थात् शाश्वत) होते हैं, वह भी प्रतिनियत जनपद आदि की संज्ञा को ही दृष्टि में रख कर कहा गया है। जैसे'उत्तर कुरु' (या भारतवर्ष में जन्मे का भारतवर्षीय) इत्यादि नाम / ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 51 4
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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