________________ पश्चाच्चिरमवलोकयतः प्रतिपत्तुश्चक्षुः प्राप्य समासाद्य स्पर्शनेन्द्रियमिव दह्येत- दाहादिलक्षणस्तस्योपघातः क्रियेतेत्यर्थः। एतावता चाऽप्राप्यकारिचक्षुर्वादिनामस्माकं को दोषः? न कश्चित्, दृष्टस्य बाधितुमशक्यत्वादिति भावः। तथा यत् स्वरूपेणैव सौम्यं शीतलं शीतरश्मि वा जलघृतचन्द्रादिकं वस्तु, तस्मिंश्चिरमवलोकिते उपघाताभावादनुग्रहमिव मन्येत चक्षः,'को दोषः'? इत्यत्राऽपि संबध्यते, न कश्चिदित्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥२१०।। आह- यधुक्तन्यायेनोपघातकाऽनुग्राहकवस्तुन्युपघाताऽनुग्रहाभावं चक्षुषो न ब्रूषे, तर्हि यद् ब्रूषे तत् कथय, इत्याशङ्क्याह गंतुं न रूवदेसं पासइ पत्तं सयं व नियमोऽयं / पत्तेण उ मुत्तिमया उवघायाणुग्गहा होज्जा॥ 211 // [संस्कृतच्छाया:- गत्वा न रूपदेशं पश्यति प्राप्तं स्वयं वा नियमोऽयम्। प्राप्तेन तु मूर्तिमतोपघातानुग्रहौ भवतः॥] हैं, वे (जब) ज्ञाता के नेत्रों को प्राप्त (स्पृष्ट) करते हैं, नेत्रेन्द्रिय,(रविकिरणों से झुलस जाने वाली) त्वचा (इन्द्रिय) की तरह ही, जलने लगती है, अर्थात् उन (किरणों) के द्वारा (नेत्रेन्द्रिय का) दाहादि रूप उपघात होने लगता है। किन्तु ऐसा मानने पर नेत्र को अप्राप्यकारी मानने वाले हम लोगों के मत में कौन-सा दोष (सम्भावित) है? अर्थात् कोई भी दोष नहीं, क्योंकि जो होता दिखाई पड़ रहा है, उसका निषेध (बाध) तो नहीं किया जा सकता (अतः रवि-किरणों से किये जा रहे नेत्र के उपघात का हम निषेध कहां कर रहे है?) इसी प्रकार, जो पदार्थ स्वरूपतः सौम्य, शीतल या शीतकिरण या जल, घृत व चन्द्रमा आदि हैं, उन्हें भी चिरकाल तक देखा जाय तो (नेत्र में) कोई उपघात नहीं होता, अतः नेत्र का मानों अनुग्रह होता है- ऐसा मान लेते हैं तो इस कथन के बाद भी (हमारी मान्यता में) कोई दोष नहीं है' यह वाक्य (अध्याहार कर) जोड लेना चाहिए, अर्थात् (पूर्वोक्त रीति से नेत्र का अनुग्रह मान लेने में भी हमारी मान्यता में) कोई (भी) दोष नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 210 // यदि उक्त न्याय (रीति) से 'कोई उपघातक या अनुग्राहक वस्तु नेत्र का उपघात या अनुग्रह नहीं करती'- ऐसा आप नहीं कहते, तो क्या कहते हैं? उसे (स्पष्ट रूप से) कहें- इस प्रकार (नेत्र की अप्राप्यकारिता के) विरोधी पक्ष द्वारा (सम्भावित) आशंका को दृष्टि में रखकर भाष्यकार (समाधान) कह रहे हैं // 211 // गंतुं न रूवदेसं पासइ पत्तं सयं व नियमोऽयं। पत्तेण उ मुत्तिमया उवघायाणुग्गहा होज्जा // [(गाथा-अर्थ :) (हमारा) नियम (नियत सिद्धान्त, पक्ष, प्रतिज्ञा) यह है कि (नेत्र इन्द्रिय अपने ग्राह्य विषय) रूप-देश (रूपवान् पदार्थ के प्रदेश) के पास स्वयं जाकर या उसे स्पृष्ट कर नहीं देखती / परन्तु कोई मूर्तिमान् पदार्थ उस (नेत्र) को स्पृष्ट करे तो (उस नेत्र के) उपघात व अनुग्रह हो (सक)ते हैं।] ------ विशेषावश्यक भाष्य -------- 307 .