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________________ तत् समालोचनं यदि सामान्यरूपस्याऽर्थस्य दर्शनमिष्यते, ततस्तर्हि न व्यञ्जनं, न व्यञ्जनावग्रहात्मकं भवति, व्यञ्जनावग्रहस्य व्यञ्जनसंबन्धमात्ररूपत्वेनाऽर्थशून्यत्वात्। तथा च प्रागपि 'पुव्वं च तस्स वंजणकालो सो अस्थपरिसुण्णो' इत्यादिना साधितमेवेदम्। अतोऽर्थदर्शनरूपमालोचनं कथमर्थशून्यव्यञ्जनावग्रहात्मकं भवितुमर्हति?, विरोधात्। अथ द्वितीयविकल्पमङ्गीकृत्याह- 'अथ व्यञ्जनस्य शब्दादिविषयपरिणतद्रव्यसंबन्धमात्रस्य तत् समालोचनमिष्यते, तर्हि कथमालोचनं- कथमालोचकत्वं तस्य घटते?, इत्यर्थः। कथंभूतस्य सतः?, इत्याह- अर्थशून्यस्य व्यञ्जनसंबन्धमात्रान्वितत्वेन सामान्यार्थालोचकत्वानुपपत्तेरित्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥२७६ // ननु शास्त्रान्तरप्रसिद्धस्याऽऽलोचनज्ञानस्य वराकस्य तर्हि का गतिः?, इत्याह आलोयण त्ति नामं, हवेज्ज तं वंजणोग्गहस्सेव। होज्ज कहं सामण्णग्गहणं तत्थत्थसुण्णम्मि?॥२७७॥ व्याख्याः- वह आलोचन ज्ञान सामान्य अर्थ का दर्शन है- ऐसा मानते हैं, तब तो वह व्यञ्जन यानी व्यअनावग्रह रूप नहीं होगा, क्योंकि व्यअनावग्रह तो व्यञ्जन-सम्बन्ध मात्र होता है, और अर्थशून्य (अर्थप्रतीति से रहित) होता है, और पहले भी (गाथा-259 में) 'उस (अर्थावग्रह) के पूर्व व्यञ्जन-काल होता है जो अर्थशून्य होता है' -इत्यादि (कथन) द्वारा इस बात को सिद्ध किया ही जा चुका है। इसलिए अर्थदर्शनरूप आलोचन किस प्रकार अर्थशून्य व्यञ्जनावग्रह स्वरूप हो सकता है? क्योंकि (दोनों में) परस्पर विरोध है। अब, द्वितीय विकल्प को स्वीकार करते हुए कहा- (अथ व्यअनस्य)। शब्दादि विषय रूप से परिणत द्रव्य-सम्बन्ध मात्र जो 'व्यञ्जन' होता है, उसका वह समालोचन है- ऐसा मानते हैं तो वह आलोचन कैसे? अर्थात् उसमें आलोचकता कैसे घटित होती है? (प्रश्न-) किस प्रकार के होने पर? उत्तर दिया- (अर्थशून्यस्य)। व्यञ्जन-सम्बन्ध मात्र से युक्त होने से वह अर्थशून्य है, इसलिए उसका सामान्य अर्थ का आलोचन करने वाला होना संगत नहीं हो सकता -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 276 // (अर्थावग्रह ही आलोचन ज्ञान) तब अन्य शास्त्र में प्रसिद्ध विचारे आलोचन ज्ञान की क्या स्थिति रही? इस (जिज्ञासा के समाधान के लिए (भाष्यकार) कह रहे हैं // 277 // आलोयण त्ति नामं, हवेज्ज तं वंजणोग्गहस्सेव / होज्ज कहं सामण्णग्गहणं तत्थत्थसुण्णम्मि?॥ Na 402 -------- विशेषावश्यक भाष्य -- ------ -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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