________________ [संस्कृतच्छाया:- तद् मङ्गलमादौ मध्ये पर्यन्तके च शास्त्रस्य। प्रथमं शास्त्रार्थाऽविघ्नपारगमनाय निर्दिष्टम् // ] तमङ्गलं शास्त्रस्यादी क्रियते, तथा मध्ये, पर्यन्ते चेति। अथैकैकस्य करणफलमाह- प्रथममङ्गलं तावच्छास्त्रार्थस्याऽविघ्नेन पारगमनाय पिपिटम् // इति गाथार्थः॥ 13 // . तस्सेव य थेजत्थं मज्झिमयं, अंतिमं पि तस्सेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्स-पसिस्साइवंसस्स॥१४॥ . [संस्कृतच्छाया:- तस्यैव च स्थैर्यार्थ मध्यमकम्, अन्तिममपि तस्यैव। अव्यवच्छित्तिनिमित्तं शिष्यप्रशिष्यादिवंशस्य // ] तस्यैव शास्त्रस्य प्रथममङ्गलकरणाऽनुभावादविघ्नेन परम्परामुपागतस्य स्थैर्यार्थं स्थिरताऽऽपादनार्थं मध्यमं मङ्गलम्, निर्दिष्टमिति वर्तते, अन्तिमं पीति' अन्त्यमपि मङ्गलं तस्यैव शास्त्रार्थस्य मध्यममङ्गलसामर्थ्येन स्थिरीभूतस्याऽव्यवच्छित्तिनिमित्तम्, कस्य, योऽसौ शास्त्रार्थ:?, इत्याह-शिष्यप्रशिष्यादिवंशगतस्येत्यर्थः। शिष्यप्रशिष्यादिवंशे शास्त्रार्थस्याऽव्यवच्छेदनिमित्तं चरममङ्गलमिति भावः / इति गाथार्थः॥१४॥ [(गाथा-अर्थः) शास्त्र के आदि में, मध्य में, तथा अन्त में मङ्गल किया जाता है। उनमें शास्त्र-अर्थ-सम्बन्धी निर्विघ्न पारगमन (पूर्णता) हेतु 'आदिमङ्गल' का निर्देश किया गया है।] व्याख्या:- उस मङ्गल को शास्त्र के आदि में, मध्य में तथा अन्त में भी किया जाता है। अब, (इन तीनों में) प्रत्येक के करने का फल बता रहे हैं- प्रथम (आदि) मङ्गल जो किया जाता है, उसका निर्देश तो शास्त्रार्थ (शास्त्र की निरूपणीय समग्र विषयवस्तु) की निर्विघ्न पूर्णता के लिए किया गया है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 13 // (14) . तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिम पि तस्सेव / अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स // . [(गाथा-अर्थः) उसी शास्त्र की स्थिरता हेतु 'मध्य मङ्गल' का तथा शिष्य-प्रशिष्य आदि वंशपरम्परा का विच्छेद न हो- इस (उद्देश्य) के लिए 'अन्तिम मङ्गल' का निर्देश किया गया है।] . व्याख्याः- प्रथम मङ्गल के द्वारा जो शास्त्र निर्विघ्न परम्परा प्राप्त करता है, उसी की स्थिरता या उसे स्थायी रूप देने की दृष्टि से 'मध्य मङ्गल' होता है- ऐसा उसके विषय में निर्देश किया गया है। अन्तिमम् अपि- अन्तिम मङ्गल भी, मध्यमङ्गल के प्रभाववश जो शास्त्र स्थिरता प्राप्त करता है, उस शास्त्र (या उस से जुड़े लोगों) की अविच्छिन्न परम्परा (के प्रवर्तन) हेतु किया जाता है। (प्रश्न-) यह परम्परा किसकी? क्या शास्त्र की? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु कहा- शिष्य-प्रशिष्यादि- अर्थात् शिष्य-प्रशिष्य आदि वंश-परम्परा की परम्परा अविच्छिन्न रूप से प्रवर्तित होती रहे- इसलिए (किया जाता है) -यह अर्थ है। शास्त्र-अध्येता शिष्य-प्रशिष्य आदि की वंश-परम्परा में शास्त्रविशेष की अविच्छिन्न परम्परा बनी रहे- इसलिए अन्तिम मङ्गल किया जाता है- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 14 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 37 382