________________ अथवा यो नयन-मनसोः प्राप्यकारित्वमभ्युपगच्छति, तस्याऽप्येतद् दूषणमापतत्येव, यच्च द्वयोर्दूषणं न तदेकस्य दातुमुचितम्, , इत्येतच्चेतसि निधाय प्राह- 'तुल्लो वेत्यादि'। वेत्यथवा। एषोऽतिप्रसङ्गलक्षण उपालम्भस्तुल्यः समानः। क्व?, इत्याहसंप्राप्तविषयत्वेऽपि नयन-मनसोरभ्युपगम्यमाने। तथाहि- अत्रापि शक्यते वक्तुम्- यदि प्राप्तमर्थं गृह्णाति चक्षुः, तर्हि अतिसंप्राप्तानप्यञ्जन-रजो-मल-शलाकादीन् कस्माद् न गृह्णाति?। मनोऽपि प्राप्तान् सर्वानपि किमिति न गृह्णाति?। गृह्णात्येवेति चेत्। न, ग्रहणाऽनवस्थानप्रसङ्गात्- यावद्धि घटं गृह्णाति, तावत् पटं, शङ्ख, शुक्तिकादीन् वा किमिति न गृह्णातीति?। घटप्राप्तिकाले पटादयो न प्राप्ता एवेति चेत् / न, तदप्राप्तौ हेत्वभावात्, तथाहि- न तावत् कट-कुट्यादयस्तेषामावारकाः, तैरन्तरितानामपि मेर्वादीनां मनसा परिच्छेदानुभवात् / कर्मोदयात्, स्वभावाद् वा प्रतिनियतमेव मनः प्राप्नोतीति चेत्। नन्वेतदप्राप्यकारिणो नयनस्यापि समानम्॥ इति गाथार्थः // 248 // अप्राप्यकारिता समान होने पर भी, कर्मोदय के कारण या अपने वैसे स्वभाव के कारण, कुछ . . (सीमित) पदार्थों को ही ग्रहण करती है, न कि सभी को। इस प्रकार, नेत्र इन्द्रिय की अप्राप्यकारिता में पर-पक्ष द्वारा (समस्त पदार्थ-ज्ञान आदि होने की) अतिप्रसक्ति का जो दोष बताया गया था, वह निरस्त हो जाता है। अथवा, जो लोग नेत्र व मन -इन दोनों को प्राप्यकारी मानते हैं, उनके समक्ष भी तो यही दोष सम्भावित है। (अर्थात् चाहे नेत्र व मन को प्राप्यकारी मानें या अप्राप्यकरी, कुछ को जानना और कुछ को न जानना -यह अनियमितता क्यों हैं? -यह आपत्ति व उपालम्भ दोनों पक्षों में समान रूप से है।) और, जो दोनों पक्षों में संभावित दोष होता है, उसे एक पक्ष में उठाना उचित नहीं होता- इस (तथ्य) को अपने मन में रख कर (भाष्यकार ने) कहा- (तुल्यो वा)। 'वा' यानी अथवा। यह अतिप्रसक्ति रूप उपालम्भ (दोनों पक्षों में) समान ही है। (प्रश्न-) उक्त उपालम्भ कहां-कहां समान है? उत्तर दिया- (संप्राप्तविषये अपि)। यदि नेत्र व मन -इन दोनों को प्राप्यकारी भी मानें, तो भी (उक्त उपालम्भ उसी तरह दिया जा सकता है)। जैसे, (प्राप्यकारी की जहां मान्यता है) वहां भी यह कहा जा सकता है- नेत्र प्राप्त (स्पृष्ट) विषय को (ही) ग्रहण करती है, तो (वह नेत्र) अत्यधिक स्पर्श वाले अञ्जन, रज, मल, शलाका आदि को क्यों नहीं ग्रहण कर पाती? मन भी प्राप्त (विद्यमान) सभी पदार्थों को क्यों नहीं ग्रहण करता? यह कहना कि “(मन) प्राप्त पदार्थों को ग्रहण करता ही है” समीचीन नहीं है, क्योंकि (ऐसा मानने पर) विषय-ग्रहण में अनवस्था-सम्बन्धी (अर्थात् अनियतता का) दोष आ जाएगा -(जैसे कि) जितनी देर घड़े को ग्रहण करता है, उतने ही समय वह कपड़े, शंख, या सीप आदि को क्यों नहीं ग्रहण कर पाता? 'घट की प्राप्ति के समय पट आदि प्राप्त नहीं होते, इसलिए वह पट आदि को नहीं जानता' - यह उत्तर भी समीचीन नहीं, क्योंकि पट आदि की प्राप्ति न होने में कोई हेतु नहीं है। और, चटाई की vie 362 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------