________________ आगमों की संख्या में विस्तार परवर्ती काल में अन्य विशिष्ट श्रुतज्ञानियों द्वारा रचित शास्त्रों को भी आगमों के रूप में मान्य किया गया। इन विशिष्ट ज्ञानियों को (1) प्रत्येकबुद्ध, (2) चतुर्दशपूर्वी व (3) दशपूर्वी - इन तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। उक्त पूर्वधारियों को 'स्थविर' नाम से भी अभिहित किया जाता है। चतुर्दशपूर्वधारी-श्रुतकेवली जो कुछ भी कहते हैं, वह किसी भी तरह द्वादशांगी से विरुद्ध नहीं होता। उनमें और केवली में इतना ही अन्तर होता है कि जहां केवली समग्र तत्त्व को प्रत्यक्ष जानते हैं किन्तु श्रुतकेवली परोक्ष रूप से, श्रुतज्ञान द्वारा जानते हैं (द्र. बृहत्कल्पभाष्य, गा. 963-966) / इसके अतिरिक्त, दशपूर्वधारी आदि 'स्थविर' आचार्य नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं (बृहत्कल्प भाष्य, गा. 132), निग्रंथ-प्रवचन को पूर्णत: आधार मान कर ही शास्त्र-प्ररूपणा करते हैं, अतः उनके ग्रन्थों को 'आगमों' के रूप में मान्यता देना स्वतः युक्तियुक्त ठहरता है। इसी दृष्टि से मूलाचार (गाथा-5/80) में कहा गया है * सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं, अभिण्णदसपुव्वकथिदं च। अर्थात् गणधरकथित 'द्वादशांगी' की तरह ही, प्रत्येकबुद्धों, श्रुतकेवली (चतुर्दशपूर्वधारी) या दशपूर्वधारी द्वारा रचित आगम भी सूत्र' (आगम) हैं। द्वादशांगी के अतिरिक्त आगमों में कुछ 'नियूढ' हैं और कुछ ‘कृत' हैं। जो शास्त्र द्वादशांगी या पूर्वो से उद्धृत हैं, वे (जिनमें आचारचूला, दशवैकालिक, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार आदि) 'नि'ढ' हैं। शेष जो स्वतन्त्र रूप से रचित हैं, वे 'कृत' हैं। (अंगप्रविष्ट व अंगबाह्यः). उपर्युक्त मान्यता के परिप्रेक्ष्य में आगमों की संख्या विस्तृत होती गई और उन्हें अंगप्रविष्ट व अंगबाह्य रूप में विभाजित किया गया। नन्दीसूत्र में द्वादशांग के अलावा, अंगबाह्य रूप में अनेक आगमों का निर्देश किया गया है। विशेषावश्यकभाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार, अंगप्रविष्ट आगम वे हैं जो गणधरों द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट हैं और गणधरों द्वारा सूत्र-बद्ध हैं। अंगबाह्य आगम वे हैं जो बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित-उपदिष्ट होते हैं और जिनकी रचना स्थविरों-श्रुतकेवली आदि द्वारा की गई होती है (विशेषावश्यक भाष्य, गा. 550 तथा वृत्ति)। बृहत्कल्पभाष्य (गाथा 144 व चूर्णि) के अनुसार, गणधरकृत आगमों से स्थविरों द्वारा निर्मूढ आगम अनंगप्रविष्ट (अंगबाह्य) आगम हैं। इसके अतिरिक्त, वृद्धपरम्परा से प्रामाणिक रूप में प्राप्त जिन-उपदेश व पारम्परिक मान्यताएं आदि जिनमें वर्णित हैं, वे भी 'अनंगप्रविष्ट' हैं। . दिगम्बर परम्परा के आ. पूज्यपाद व आ. अकलंक आदि आचार्यों ने भी सर्वज्ञ तीर्थंकर, श्रुतकेवली व आरातीय (=उत्तरवर्ती, अर्थात् गणधरों के शिष्य-प्रशिष्य, जिनका श्रुत-परम्परा से निकटतम या घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है) -इन ca(r)(r)R(r)(r)(r)(r)(r)(r)R [25] R(r)(r)R(r)0 CR&DecR@@CR