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________________ अथाऽनन्य इति द्वितीय: पक्ष: कक्षीक्रियते, हन्त! तर्हि सामान्यमेवाऽसौ, तदनन्यत्वात्, सामान्यात्मवत्, यद् यस्मादनन्यत् तत् तदेव, यथा सामान्यस्यैवाऽऽत्मा, अनन्यश्च सामान्याद् विशेषः, इति सामान्यमेवाऽयमिति / यदि चाऽतिपक्षपातितया सामान्येऽपि विशेषोपचारः क्रियते, तर्हि न काचित् क्वचित् क्षतिः, न ह्यपचारेणोच्यमानो भेदस्तात्त्विकमेकत्वं बाधितुमलम्, तस्मात् सामान्यमेवाऽस्ति न विशेषः। इति संग्रहनयमतेन सर्वत्रैकमेव द्रव्यमङ्गलम्॥ इति गाथार्थः // 34 // तदेवं संग्रहेण स्वाभिमते सामान्य प्रतिष्ठते विशेषवादिनौ नैगमव्यवहारावाहतु: न विसेसत्यंतरभूअमत्थि सामण्णमाह ववहारो। उवलंभववहाराभावाओ खरविसाणं व॥३५॥ सामने) ये दो विकल्प हैं। यदि प्रथम विकल्प को स्वीकार करते हैं (अर्थात् विशेष को सामान्य से / भिन्न मानते हैं) तो आकाश-पुष्प की तरह वह सामान्यरहित होने के कारण, 'विशेष' ही नहीं रहता (अर्थात् उसकी सत्ता ही खण्डित हो जाती है) क्योंकि जो-जो वस्तु सामान्य-रहित है, वह-वह वस्तु अस्तित्वहीन है, जैसे आकाश-कमल / और आपने विशेष को सामान्य से रहित माना है, इसलिए उसे अस्तित्वहीन ही मानना पडेगा। अच्छा चलो, यदि दूसरा पक्ष स्वीकार करते हैं, तब तो (और भी) दुःख की बात है! फिर तो (आपका) विशेष सामान्य से अनन्य होने से उसी प्रकार सामान्यरूप है जैसे सामान्य के आत्मस्वरूप को सामान्य ही माना जाता है, कुछ अन्य नहीं। क्योंकि (यह नियम है कि) जो जिससे अनन्य होता है, वह उसी रूप (तद्रूप) होता है, जैसे सामान्य (के स्वयं) का आत्मीय रूप / विशेष भी यदि सामान्य से अनन्य है तो वह 'सामान्य'-रूप ही है, (विशेषरूप नहीं)। हां, यदि आप अपने मत में विशेष आग्रह रखते हुए, सामान्य में ही विशेष का उपचार करना चाहते हैं, तो कोई क्षति नहीं, क्योंकि उपचार से कहा जाने वाले भेद कभी तात्त्विक एकत्व (अभेद) का बाधक नहीं हो पाता, इसलिए (सिद्ध हुआ कि) 'सामान्य' ही है, 'विशेष' (की सत्ता) नहीं है। इस प्रकार, संग्रह नय के मत में सर्वथा एक ही द्रव्यमङ्गल है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 34 // . इस प्रकार, संग्रह नय द्वारा अपना अभिमत (दृष्टिकोण) प्रस्तुत कर दिये जाने पर, विशेषवादी नैगम नय और व्यवहार नय (के मानने वालों) ने (जो) कहा (उसे प्रस्तुत गाथा में आचार्य भाष्यकार कह रहे हैं) (35) न विसेसत्यंतरभूअमत्थि सामण्णमाह ववहारो। उवलंभ-ववहाराभावाओ खरविसाणं व॥ Na 64 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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