________________ प्रस्तुतकृति; विशेषावश्यक भाष्य आचार्यश्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (वि. 7 वीं शती) तथा उनकी विशिष्ट रचना 'विशेषावश्यक भाष्य' का जैन इतिहास, संस्कृति व दर्शन की परम्परा में ही नहीं, समस्त भारतीय न्यायदर्शन की परम्परा में भी महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। प्राकृत भाषा में रचित जैन आगमिक व्याख्याग्रन्थों में इसका अद्वितीय स्थान है। यह ग्रन्थ यद्यपि अपने आप में एक मूल ग्रन्थ के रूप में ख्याति प्राप्त है, किन्तु वस्तुत: यह टीकाग्रन्थ है। भाष्य' यह शब्द ही यह सूचित करता है कि यह मूल ग्रन्थ नहीं, अपितु किसी विशिष्ट कृति पर एक विस्तृत व्याख्यान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ स्वनामधन्य आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा प्राकृत पद्यों में रचित कृति 'आवश्यक नियुक्ति' पर व्याख्यान प्रस्तुत करता है। जैन परम्परा में भद्रबाहु नाम के दो प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। इनमें प्रथम हैं- श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु, जिनका समय विक्रम पूर्व संवत 376 माना जाता है। दूसरे भद्रबाहु निमित्तज्ञाता, तथा आचार्यवराहमिहिर के भ्राता थे, जिनका समय विक्रम की 5-6 शती, (तथा कुछ के मत में 8-9 वीं शती भी) है। श्रद्धान्वित परम्परावादी इस नियुक्ति को श्रुतकेवली भद्रबाहु की कृति मानते हैं, किन्तु अधिकांश विद्वद्वर्ग इसे भद्रबाहु (द्वितीय) की कृति मानता है। आवश्यक नियुक्ति व आचार्य भद्रबाहु के विषय में विस्तृत विवरण आगे दिया जा रहा है। आवश्यक नियुक्ति अपने आप में एक विशालकाय (1600 से अधिक गाथाओं वाला) ग्रन्थ है, किन्तु यह भाष्य उसके सम्पूर्ण भाग पर नहीं, अपितु उसके मात्र प्रथम 'सामायिक अध्ययन पर रचित है। यह नियुक्ति भी स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं, अपितु विशिष्ट आगम ग्रन्थ 'आवश्यक सूत्र' पर रची गई है। इस प्रकार, इस भाष्य ग्रन्थ का सम्बन्ध परम्परया जिनवाणी से जुड़ जाता है। आवश्यक सूत्र जैन श्रमणों के लिए अपेक्षित आवश्यक (सामयिक आदि) कृत्यों के स्वरूप व महत्त्वादि पर प्रकाश डालने वाला एक विशिष्ट आगमग्रन्थ है, और इस जिनवाणी में निहित तत्त्वज्ञान को अपेक्षित अनेकानेक प्रासंगिक विचारबिन्दुओं के माध्यम से आवश्यकनियुक्ति में और उस पर रचे गए इस भाष्य में विस्तार से समझाया गया है- इस दृष्टि से यह ग्रन्थ जिनवाणी की अमूल्य धरोहर को अपने में समाहित किये हुए है। यह भाष्य ग्रन्थ (3600 से अधिक गाथाओं के माध्यम से) अनेक दुरूह दार्शनिक विषयों पर प्रकाश डालता है, और वस्तुतः यह जैन तत्त्वज्ञान को जानने-समझने का एक महनीय कोशग्रन्थ बन गया है। किन्तु कालान्तर में, प्राकृत भाषा की क्रमिक दुरूहता तथा जैन तत्त्व-ज्ञान का ह्रास- इन कारणों से यह ग्रन्थ सुबोधगम्य नहीं रहा तो इस पर पूज्य आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने संस्कृत भाषा में एक विस्तृत टीकाशिष्यहिता नामक बृहद् वृत्ति- का निर्माण किया जो 28 हजार श्लोक प्रमाण मानी जाती है। भाष्य ग्रन्थ के मर्म व सार को हृदयंगम करने की दृष्टि से उक्त टीका का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 'भाष्य' ग्रन्थ की कुछ निजी विशेषताएं मानी गई हैं। इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध श्लोक है: सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र, पदैः सूत्रानुसारिभिः / स्वपदानि च वर्ण्यन्ते, भाष्यं भाष्यविदो विदुः॥ ROOR@PROPRODR [18] MSRORRORRORR