________________ अत्राह कश्चित्- नन्वेवं सत्यऽमङ्गलमप्यसाध्वादिकं मङ्गलबुद्ध्या गृह्यमाणं तत्कार्यं करिष्यति, न्यायस्य समानत्वात् / तदयुक्तम्, असाधोः स्वतो मङ्गलरूपताया अभावात्, सत्यमणिर्हि सत्यमणितया गृह्यमाणो ग्रहीतुर्गौरवमापादयति, न त्वसत्यमणिः सत्यमणितया, इत्यलं प्रसङ्गेन। आह- यद्येवम्, तर्खेकमेव मङ्गलमस्तु, तेनापि हि शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहः सेत्स्यति, किं मङ्गलत्रयकरणेन?, इत्याह'मंगलतियेत्यादि' मङ्गलत्रये हि कृते शिष्यस्य बुद्धौ तत्परिग्रहो भवति। तेनाऽपि किमिति चेत्?, इत्याह- ननु तत्रापि पढमं सत्थत्थाविग्घपारगमणाय निद्दिटुं' इत्यादिना कारणं निमित्तं प्रागेव भणितं किमिति विस्मार्यते?। न च वक्तव्यमेकेनैव मङ्गलेन तत् कारणत्रयं सेत्स्यति, यतो यथैव शास्त्रं मङ्गलमपि सद् मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मङ्गलं न भवति साधुवत्, तथा शास्त्रस्याऽऽदि-मध्या-ऽवसानानि मङ्गलरूपाण्यपि मङ्गलबुद्धिपरिग्रहं विना न मङ्गलकार्यं कुर्वन्ति, इति मङ्गलत्रयाभिधानम्॥ इति गाथार्थः॥२१॥ उसे ग्रहण किया जाय तो मङ्गल भी मङ्गल रूप में कार्यकारी नहीं होता, जैसे (मङ्गल रूप) साधु भी कालुष्य-युक्त चित्त (अशुभ भाव) वाले अभव्य के लिए (मङ्गलकारी सिद्ध नहीं होता)। यहां पर कोई प्रश्न करता है- यदि ऐसा है तो अमङ्गल रूप असाधु (दुष्ट व्यक्ति) आदि को भी मङ्गल बुद्धि से ग्रहण किया जाय तो क्या वह वैसा (मङ्गलात्मक) कार्य करेगा, क्योंकि नियम तो एक जैसा होता है? (उत्तर) उक्त प्रश्न युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि असाधु में स्वतः मङ्गलरूपता नहीं है। उदाहरणार्थ- सच्ची मणि को भी सच्ची मणि के रूप में ग्रहण करने पर ही वह ग्रहण करने वाले के गौरव को बढ़ाती है, न कि सत्यमणि के रूप में ग्रहण किये जाने वाली कोई असत्य मणि गौरव को बढ़ाती है। अब, इससे अधिक विस्तार की यहां आवश्यकता नहीं है। (प्रश्न-) कोई (प्रश्नकर्ता) कहता है- यदि ऐसा है तो फिर एक ही मङ्गल किया जाय, उसी से शिष्य-मति में मङ्गल रूप से (शास्त्र का) ग्रहण सिद्ध हो जाएगा, तीन मङ्गलों के करने से क्या लाभ है? (इसके उत्तर हेतु) कहा- मङ्गलत्रिक (इत्यादि)। अर्थात् मङ्गल करने से शिष्य की बुद्धि में मङ्गलता का ग्रहण होता है। उस त्रिविध मङ्गल करने का क्या (विशेष) प्रयोजन है? अतः (इस प्रश्न के उत्तर में) कहा- प्रथमं शास्त्रार्थ (इत्यादि)। (गाथा-13 में) 'प्रथमं शास्त्रार्थ- अविघ्नपारगमनाय' इत्यादि कथन के माध्यम से इस त्रिविध मङ्गल के कारणों या निमित्त के बारे में पहले ही कहा जा चुका है, क्या उसे भूल गए? (पनः प्रश्न-) (आपने जो तीन कारण या प्रयोजन पहले बताए हैं) उन कारणों या प्रयोजनों की सिद्धि तो एक मङ्गल से भी हो सकती है? (उत्तर-) ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसे मङ्गल रूप शास्त्र भी साधु की तरह मङ्गल-बुद्धि से ग्रहण किये बिना मङ्गलकारी नहीं होता, वैसे ही शास्त्र के आदि, मध्य वा अन्त्य भाग भी, मङ्गलरूप होते हुए भी, मङ्गल-बुद्धि से गृहीत किये बिना, मङ्गलकारी नहीं होते हैं, इसलिए त्रिविध मङ्गल का कथन किया गया है| यह गाथा का अर्थ हुआ // 21 // SAL 46 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------