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________________ "अस्थाणंतरचारी चित्तं निययं तिकालविसयं ति। अत्थे उ पडुप्पण्णे विणिओगं इंदियं लहइ"॥१॥ [अर्थानन्तरचारि चित्तं नियतं त्रिकालविषयमिति। अर्थे तु प्रत्युत्पन्ने विनियोगमिन्द्रियं लभते॥] अत्र व्याख्या- अर्थे शब्दादौ श्रोत्रादीन्द्रियव्यञ्जनावग्रहेण गृहीतेऽनन्तरमर्थावग्रहादारभ्य चरति प्रवर्तते, इत्यर्थानन्तरचारि मनः, न तु व्यञ्जनावग्रहकाले तस्य प्रवृत्तिरिति भावः। त्रिकालविषयं चित्तं, सांप्रतकालविषयं त्विन्द्रियम्। इत्यलं विस्तरेण // गाथार्थः // 242 // 24 // अमुमेव मनसोऽनुपलब्धिकालासंभवं सयुक्तिकं भावयन्नाह नेयाउ च्चिय जं सो लहइ सरूवं पईव-सद्द व्व। तेणाजुत्तं तस्सासंकप्पियव्वंजणग्गहणं // 244 // [संस्कृतच्छाया:- ज्ञेयादेव यत् तत् लभते स्वरूपं प्रदीप-शब्दाविव। तेन अयुक्तं तस्य असंकल्पितव्यञ्जनग्रहणम् // ] आदि इन्द्रिय-सम्बन्धी उपयोग में भी व्यअनावग्रह-काल बीत जाने पर ही, मन का व्यापार होता है। उदाहरण-स्वरूप) जैसे कल्पभाष्य में कहा गया है "अर्थ (पदार्थ को व्यञ्जनावग्रह से ग्रहण करने) के बाद ही मन का चरण (प्रवर्तन, व्यापार) होता है। नियत रूप से चित्त त्रिकालविषयग्राही होता है। इन्द्रिय की प्रवृत्ति तो तभी होती है जब अर्थ (पदार्थ) विद्यमान हो।" इस गाथा का व्याख्यान इस प्रकार है- शब्द आदि अर्थ में श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा व्यञ्जनावग्रह किये जाने के अनन्तर, अर्थावग्रह के काल से लेकर यह प्रवृत्त होता है, इसलिए मन 'अर्थानन्तरचारी' (कहा जाता) है। चित्त (मन) तो त्रिकालविषयी है, किन्तु इन्द्रियां वर्तमानकाल को ही विषय करती हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 242-243 // (मन का कोई अनुपलब्धि-काल नहीं) मन के अनुपलब्धिकाल की इस असम्भावना को ही (भाष्यकार) युक्तिपूर्वक प्रस्तुत कर रहे हैं // 244 // नेयाउ च्चिय जं सो लहइ सरूवं पईव-सद्द व्व | तेणाजुत्तं तस्सासंकप्पियव्वंजणग्गहणं // [(गाथा-अर्थ :) प्रदीप व शब्द की तरह, वह (मन, अपने) ज्ञेय वस्तु से ही स्वरूप (स्वअस्तित्व) को प्राप्त करता है। इसलिए उस (मन) द्वारा असंकल्पित (अचिन्तित) व्यञ्जनों (शब्दादि परिणत द्रव्यों) का ग्रहण (मानना) युक्तियुक्त नहीं।] Ma 356 -------- विशेषावश्यक भाष्य --
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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