________________ तत्र प्रोक्तः, अत्र त्ववध्यादीन्यपि गृहीतानि सन्ति, अतस्तदर्थमयमिहापि वक्तव्य इति चेत् / नैवम्, मतेरुपलक्षणत्वेनाऽवध्यादिष्वप्यसौ तत्र द्रष्टव्य इत्यदोषः। यद्येवम्, तर्हि श्रुतस्याऽपि बहुत्वलक्षणो हेतुः प्रागुक्त एव, किमितीह पुनरप्युच्यत? इति चेत् / सत्यम्, किन्तु श्रुतोपलब्धा बहुत्वात्, शेषोपलब्धास्तु तत्स्वाभाव्याद् न शक्यन्तेऽभिधातुम्, इति विषयविभागदर्शनार्थं तस्येह पुनरुपन्यासः॥ अपरस्त्वाह- ननु मत्याधुपलब्धानामपि केषाञ्चिदभिलाप्यत्वात् किमुच्यते 'सेसोवलद्धभावा साभव्वत्ति'?। सत्यम, किन्त तेषां श्रुतविषयत्वेनैवाऽभिधानाशक्यत्वस्योक्तत्वाददोषः॥ इति गाथार्थः॥ 139 // विनेयः पृच्छति कत्तो एत्तियमेत्ता भावसुय-मईण पज्जया जेसिं?। भासइ अणंतभागं, भण्णइ जम्हा सुएऽभिहियं // 140 // पूर्व की (138वीं) गाथा में मात्र मति श्रुत को बहुलता के कारण अनभिलाप्य बताया था, किन्तु यहां अवधि आदि ज्ञानों का भी ग्रहण अभीष्ट है, अतः उन्हें अनभिलाप्य होने में ‘बहुलता' को पुनः कारण बताना तो पुनरुक्तिदोष नहीं होगा। (शंका का उत्तर-) यह कहना सही नहीं है। ‘मति' शब्द तो उपलक्षण है, उसके द्वारा अवधि आदि ज्ञानों का ग्रहण भी (पूर्व की 138वीं गाथा में) वहां जानना चाहिए, इसलिए (पुनरुक्ति-दोष से बचने के लिए पुनः 'बहुलता' रूपी कारण को महत्त्व न देकर 'स्वभाव' को महत्त्व दिया गया है, अतः) कोई दोष नहीं है। (पुनः शंका-) यदि ऐसी बात है, तब तो 'श्रुत' का भी (अनभिलाप्यता सम्बन्धी बहुलतारूपी) कारण पहले कहा ही गया है, फिर बहुलता को ' प्रस्तुत गाथा में कारण रूप से क्यों कहा गया (और पुनरुक्ति दोष का विचार क्यों नहीं किया गया)? (शंका का उत्तर-) आपका कहना ठीक है। किन्तु श्रुतज्ञान से उपलब्ध (ज्ञात) पदार्थ बहुलता के कारण, और शेष ज्ञानों से प्राप्त पदार्थ अपने निजी (अनभिलाप्य) स्वभाव के कारण कहे नहीं जा सकते- इस प्रकार विषय-विभाजन को समझाने की दृष्टि से पुनः (बहुत्वात्) बहुलता रूप कारण का निर्देश किया गया है। किन्तु दूसरे शंकाकार ने कहा- मति आदि से उपलब्ध पदार्थों में से कुछ तो अभिलाप्य (कहे जा सकते योग्य) हैं ही, तो फिर 'शेषोपलब्ध पदार्थ निज स्वभाव के कारण अनभिलाप्य हैं' ऐसा क्यों कहा? (उत्तर-) आपका कथन सही है, किन्तु 'वे (मति आदि ज्ञात पदार्थ) श्रुत के विषय रूप में ही कहे नहीं जा सकते' (मति के विषय रूप में तो कहे जा सकते हैं)- इस रूप में वैसा (यानी सभी को अनभिलाप्य) कहा गया है, अतः कोई दोष नहीं रह जाता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 139 // -शिष्य पूछता है (140) कत्तो एत्तियमेत्ता भावसुय-मईण पज्जया जेसिं?| भासइ अणंतभागं, भण्णइ जम्हा सुएऽभिहियं // ----- विशेषावश्यक भाष्य --------215 dte