________________ अथेहाया: पूर्व सामान्यग्रहणे परेणेष्यमाणे सूरिः स्वसमीहितसिद्धिमुपदशर्यन्नाह अत्थोग्गहओ पुव्वं, होयव्वं तस्स गहणकालेणं। पुव्वं च तस्स वंजणकालो सो अस्थपरिसुण्णो॥२५९॥ [संस्कृतच्छाया:- अर्थावग्रहतः पूर्वं भवितव्यं तस्य ग्रहणकालेन / पूर्वं च तस्य व्यञ्जनकाल: सोऽर्थपरिशून्यः॥] नन्वीहायाः पूर्व यत् सामान्यं गृह्यते, तस्य तावद् ग्रहणकालेन भवितव्यम्। स चाऽस्मदभ्युपगतसामयिकार्थावग्रहकालरूपो न भवति, अस्मदभ्युपगताङ्गीकारप्रसङ्गात्, किं तर्हि?, अस्मदभ्युपगतार्थावग्रहात् पूर्वमेव भवदभिप्रायेण तस्य सामान्यस्य ग्रहणकालेन भवितव्यम्, पूर्व च तस्याऽस्मदभ्युपगतार्थावग्रहस्य व्यञ्जनकाल एव वर्तते, व्यञ्जनानां शब्दादिद्रव्याणामिन्द्रियमात्रेणाऽऽदानकालो मध्यपदलोपाद् व्यञ्जनकालः। भवत्वेवम्, तथापि तत्र सामान्यार्थग्रहणं भविष्यति, इत्याशङ्क्याह- स च व्यञ्जनकालोऽर्थपरिशून्यः, न हि तत्र सामान्यरूपः, विशेषरूपो वा कश्चनाऽप्यर्थः प्रतिभाति, तदा मनोरहितेन्द्रियमात्रव्यापारात्, तत्र चार्थप्रतिभासाऽयोगात्। तस्मात् अब, जब कि पूर्वपक्षी ईहा से पूर्व 'सामान्य वस्तु' के ग्रहण को अभीष्ट कर चुका है, भाष्यकार अपने अभीष्ट मत की सिद्धि का निदर्शन कर रहे हैं // 259 // अत्थोग्गहओ पुव्वं, होयव्वं तस्स गहणकालेणं। . पुव्वं च तस्स वंजणकालो सो अत्यपरिसुण्णो // [(गाथा-अर्थ :) (गृहीत) 'सामान्य' का ग्रहण-काल होना चाहिए, और उसे अर्थावग्रह से पहले होना चाहिए। (किन्तु) उस (सामान्य-ग्रहण काल) से पहले तो व्यञ्जन-काल है और वह (सामान्य या विशेष, किसी भी प्रकार के) 'अर्थ' (की प्रतीति) से शून्य होता है।] व्याख्याः- ईहा से पूर्व, जिस 'सामान्य' का ग्रहण होता है, उसका कोई ग्रहण-काल तो होना ही चाहिए, किन्तु वह हमारे द्वारा माने गये 'एक समयवर्ती अर्थावग्रह-काल रूप नहीं होता, अन्यथा (आप उसे अर्थावग्रह काल रूप मानें तो) आप हमारे मत को ही स्वीकार कर लेंगे / (प्रश्न) तो फिर वह (ग्रहण-काल) कैसा होगा? (उत्तर-) आपके अभिप्रायानुसार तो उस सामान्य-ग्रहण काल को हमारे द्वारा स्वीकृत अर्थावग्रह से पूर्व ही होना चाहिए, किन्तु हमारे द्वारा स्वीकृत अर्थावग्रह का 'व्यञ्जन-काल' ही है, और व्यञ्जन-काल से तात्पर्य है। व्यञ्जनादान-काल / यहां मध्यमपदलोपी समास होकर 'व्यञ्जन-काल' शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है- व्यञ्जन यानी शब्द आदि द्रव्यों का मात्र इन्द्रिय से ग्रहण करने का काल। (पूर्वपक्षी का उत्तर-) आपका ही कथन मान लें तो भी 'सामान्य' अर्थ का ग्रहण हो सकता है (अतः हमारे मत में आखिर दोष क्या रहा?) उक्त उत्तर की आशंका (सम्भावना) का (भाष्यकार) प्रत्युत्तर दे रहे हैं- (सः अर्थपरिशून्यः)। वहां न तो कोई 'सामान्य' और न ही कोई 'अर्थ' प्रतिभासित 380 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------