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________________ आह- ननु सामान्या बुद्धिरिह गृहीता, श्रुतोपयुक्तत्वे च गृह्यमाणे कथं मतिदृष्टत्वमर्थानां संभवति?, श्रुतबुद्धिदृष्टत्वस्यैव तत्र संभवात् / नैतदेवम्, मतिपूर्वं हि श्रुतम्, ततो यत्र श्रुतबुद्धिदृष्टत्वं तत्र मतिदृष्टत्वमस्त्येव, इति न काचित् क्षतिः, इत्यलमतिचर्चितेन। तदेवं श्रुतज्ञानोपयुक्तः सामान्यबुद्धिदृष्टानर्थान् संभवतो यान् भाषते तद् भावश्रुतमिति स्थितम्। नन्वर्थानां कथं भावश्रुतत्वम्? ज्ञानस्यैव तत्संभवात् / सत्यम्, किन्तु विषय-विषयिणोरभेदोपचाराद् भावश्रुते प्रतिभासमाना अर्था अपि भावश्रुतम्, इत्यदोषः। _ 'मइरन्नत्ति'। यथोक्ताद् भावश्रुतादन्या व्यतिरिक्ता मतिर्द्रष्टव्या। इदमुक्तं भवति- येऽभिलाप्या अपि सन्तो घटादयः श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतोपयुक्तैर्न विकल्प्यन्ते, ये चाऽर्थपर्यायत्वेन वाचकध्वनेरभावाद् मूलत एवाऽभिलपितुमशक्या अनभिलाप्याः, ते यस्यां विज्ञप्तौ प्रतिभासन्ते, सा मतिरित्यवगन्तव्या, न तु श्रुतम्, अभिलाप्यवस्तुविषयायां (विज्ञप्तौ) श्रुतानुसारित्वाभावात, अनभिलाप्यवस्तुविषयायां विज्ञप्तौ तु भाषणायोग्यत्वात् // इति गाथाद्वयार्थः॥१४७॥१४८॥ अथेष्टतोऽवधारणविधिमपदर्शयन्नाह पुनः शंकाकार ने प्रश्न पूछा- आपने 'बुद्धि' पद से सामान्य बुद्धि (मति व श्रुत दोनों) का ग्रहण बताया है। यदि 'श्रुतोपयोग सहित' पदार्थों का ग्रहण करेंगे तो पदार्थों का ‘मतिदृष्ट' होना कैसे सम्भव होगा? श्रुतबुद्धिदृष्ट होना ही संगत होगा। इसका समाधान इस प्रकार है- ऐसी बात नहीं है। श्रुत मतिपूर्वक ही होता है, अतः जो ‘श्रुतबुद्धिदृष्ट' होता है, वह ‘मतिदृष्ट' होगा ही, अतः कोई दोष नहीं है। इसलिए और अत्यधिक चर्चा की अब जरूरत नहीं रहती। - इस प्रकार अब यह निर्णय हुआ कि श्रुतज्ञानोपयोग से युक्त व्यक्ति सामान्य बुद्धि (मति-श्रुत) में देखे गए (उपलब्ध) पदार्थों में से यथासंभव जिन्हें बोलता है, वह 'भावश्रुत' है। शंका- पदार्थों का भावश्रुतपना कैसे? वह तो ज्ञान का ही हो सकता है? उत्तर- ठीक है, किन्तु विषय व विषयी में अभेद उपचार से भावश्रुत में प्रतिभासित पदार्थों को भी भावश्रुत कह दिया गया है, अतः कोई दोष नहीं। .. (मतिःअन्या-) पूर्वोक्त भावश्रुत से अन्यथा पृथक् जो (ज्ञान) है, वह ‘मति' (ज्ञान) है। तात्पर्य यह है कि जो अभिलाप्य (भाषणयोग्य) होते हुए भी, जो घटादि पदार्थ, श्रुतानुसारी न होने के कारण श्रुतोपयोग-सहित विकल्पित नहीं होते (वे मति ज्ञान हैं), या जो अर्थपर्यायरूप के कारण वाचकध्वनि से रहित हैं, इसलिए मौलिक रूप से ही भाषणयोग्य नहीं है, अनभिलाप्य हैं, वे जिस ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं, उन्हें 'मतिज्ञान' जानना चाहिए, 'श्रुत' के रूप में नहीं, क्योंकि वहां अभिलाप्य वस्तुविषयक ज्ञान श्रुतानुसारी नहीं है और अनभिलाप्यवस्तु को विषय करने वाला ज्ञान तो भाषणयोग्य ही नहीं है। यह दोनों गाथाओं का अर्थ पूर्ण हुआ // 147-148 // अब अभीष्ट अवधारण-विधि क्या है? इसे बता रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------225 0
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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