________________ [संस्कृतच्छाया:- केचिदभाष्यमाणाः श्रुतमनुसरतोऽपि ये मतिविशेषाः। मन्यन्ते ते मतिरेव भावश्रुताभावतः, तद् न // ] . केचिद् व्याख्यातारः 'मन्नति ते मइ च्चियत्ति' तान् मतिविशेषान् श्रुतमनुसरतोऽपि मतिरेवेति मन्यन्ते। ये किम्? इत्याहयेऽभाष्यमाणा येषुशब्दप्रवृत्तिर्नास्तीत्यर्थः, श्रुतानुसारिणोऽपि मतिविशेषा ये शब्दप्रवृत्तिरहिताः केवलं हृद्येव विपरिवर्तन्ते ते मतिज्ञानमेवेति केचिद् मन्यन्त इति भावः। तदेतद् न / कुतः?, इत्याह- भावश्रुताभावप्रसङ्गात्, तदभावश्च किं सद्दो मइरुभयं भावसुयं सव्वहाऽजुत्तं' 'सद्दो ता दव्वसुर्य मइराभिणिबोहियं न वा उभयं' इत्यादिपूर्वोक्तग्रन्थाद् भावनीयम् // इति गाथार्थः॥ 145 // किञ्च किह मइ-सुयनाणविऊछट्ठाणगया परोप्परं होजा?। भासिजंतं मोत्तुं जइ सव्वं सेसयं बुद्धी॥१४६॥ [संस्कृतच्छाया:-कथं मतिश्रुतज्ञानविदः षट्स्थानगताः परस्परं भवेयुः? भाष्यमाणं मुक्त्वा यदि सर्वं शेषकं बुद्धिः॥] ___ [(गाथा-अर्थः) कुछ व्याख्याता उन मति-विशेषों को- जो श्रुतानुसारी तो हैं, किन्तु अभाषित (वचन-प्रवृत्ति में नहीं आते) हैं- 'मति' ही मानते हैं। किन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर तो भावश्रुत के अभाव का प्रसंग (अनिष्ट दोष) आ जाएगा।] व्याख्याः- कुछ व्याख्यानकर्ता (मन्यन्ते तान्) श्रुतानुसारी होने वाले मति-विशेषों को ‘मति' ही मानते हैं। कैसे मतिविशेषों को? (अभाष्यमाणाः) जिनमें शब्द-प्रवृत्ति नहीं होती। तात्पर्य यह है कि श्रुतानुसारी होने वाले भी जो मति-विशेष, शब्दप्रवृत्ति से रहित होते हैं, केवल हृदय में ही स्फुरित होते रहते हैं, वे मतिज्ञान ही हैं- ऐसा मानते हैं। किन्तु उनका यह मानना समीचीन नहीं। क्यों? उत्तर दिया- (भावश्रुताभावतः)। (वैसा मानने पर तो) भावश्रुत का ही अभाव हो जाएगा। उसका अभाव किस प्रकार है, वह पहले (गाथा-132-133 में) कहा जा चुका है, वहीं से समझ लेना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 145 // और भी (दूषण जो पूर्वोक्त व्याख्यान में हैं, वह इस प्रकार है) (146) किह मइ-सुयनाणविऊछट्ठाणगया परोप्परं होज्जा?| भासिज्जंतं मोतुं जइ सव्वं सेसयं बुद्धी // [(गाथा-अर्थः) यदि भाष्यमाण (शब्दप्रवृत्तिरहित) को छोड़कर सभी शेषबुद्धि मति-ज्ञान (के रूप में मान्य) हो. तो फिर मति-श्रुतज्ञानधारी परस्पर षस्थानपतित कैसे होते (कहे जाते)?] ------ विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 221