________________ अथोपसंहरति-'तो त्ति'। तस्मात् ते मतिश्रुते स्वामि-कालादिभिरविशेषेऽपि भिन्नरूपे भेदवती मन्तव्ये। कुतः? इत्याहयद् यस्मात् कारणाद् द्वे अपि भिन्नस्वभावे- उक्तन्यायेनैकस्य ध्वनिपरिणामित्वात्, अपरस्य तूभयस्वभावत्वात् // इति गाथार्थः॥१५० // तदेवं मूलगाथायां 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं' इत्येतत् पूर्वार्धं 'सामण्णा वा बुद्धी' इत्यादिना व्याख्यातम् / अथ इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेजा' इत्येतदुत्तरार्धं व्याचिख्यासुराह- . इयर त्ति मइन्नाणं तओ वि जइ होइ सद्दपरिणामो। तो तम्मि वि किं न सुयं भासइ जं नोवलद्धिसमं?॥१५१॥ [संस्कृतच्छाया:- इतरदिति मतिज्ञानं ततोऽपि यदि भवति शब्दपरिणामः। ततस्तस्मिन्नपि किं न श्रुतं भाषते यद् नोपलब्धिसमम्॥] अथवा (किसी भी व्यक्ति के लिए) दूध, ईख, गुड़, शर्करा आदि में जो माधुर्य की तरतमता (हीनाधिकता, परस्पर-विशेषता) (अनभिलाप्य पदार्थ ही हैं)। इसलिए उक्त पदार्थों के ज्ञान-विषय (ज्ञेय) होने पर भी, वहां ध्वनि-परिणमन कैसे हो सकता है? अभिलाप्य पदार्थों से अनन्तगुने अनभिलाप्य पदार्थ होते हैं। इसलिए अभिलाप्य व अनभिलाप्य- दोनों प्रकार के पदार्थों को विषय करने के कारण, शब्दपरिणमनयुक्त व अ-शब्दपरिणमनयुक्त (दो प्रकार का) मतिज्ञान है- यह सिद्ध हुआ। अब उपसंहार कर रहे हैं (ततः)- इसलिए, वे मति व श्रुतज्ञान, यद्यपि स्वामी, काल आदि की दृष्टि से समान हैं, तथापि परस्पर भेद वाले हैं- ऐसा जानना चाहिए। क्यों? उत्तर है- (यत्) चूंकि वे दोनों ही भिन्न स्वभाव वाले हैं, क्योंकि उनमें एक (श्रुत) ध्वनिपरिणमन वाला है और दूसरा (मति) उभयस्वभाव वाला (ध्वनिपरिणामी, तथा अ-ध्वनिपरिणामी) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 150 // __ इस प्रकार पूर्वोक्त गाथा (सं.128) के पूर्वार्ध (बुद्धिदृष्ट जिन पदार्थों को मति-श्रुतसहित बोलता है, वह श्रुत है- यहां तक) का व्याख्यान पूर्वोक्त गाथा (सं.147 आदि) द्वारा किया गया। अब इसी (128वीं) गाथा के उत्तरार्ध (अन्यत्र भी श्रुत हो सकता है... इत्यादि) का व्याख्यान प्रस्तुत कर रहे हैं (151) इयर त्ति मइन्नाणं तओ वि जइ होइ सद्दपरिणामो। . तो तम्मि वि किं न सुयं भासइ जं नोवलद्धिसमं? // [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) इतर (अन्य) यानी पूर्वोक्त से अवशिष्ट मतिज्ञान, यदि उसमें भी शब्दपरिणमन होता है, तब भी वहां 'श्रुत' रूपता क्यों नहीं है? (उत्तर-) क्योंकि उपलब्धि-समान बोलना नहीं होता। 2 228 --- -- विशेषावश्यक भाष्य