________________ क इव?, इत्याह- तेन गृहगवाक्षेण करणभूतेनोपलब्धस्य योषिदाद्यर्थस्य योऽनुस्मर्ता देवदत्तादिः स इव, वाशब्दस्येवाऽर्थत्वात्। क्व सति?, इत्याह- गृहगवाक्षस्योपरमेऽप्यभावेऽपि सतीत्यर्थः। अत्र प्रयोगः- इह यो येषूपरतेष्वपि तदुपलब्धानर्थाननुस्मरति स तत्रोपलब्धा दृष्टः, यथा गृहगवाक्षोपलब्धानामर्थानां तद्विगमेऽप्यनुस्मर्ता देवदत्तादिः, अनुस्मरति चेन्द्रियविगमेऽपि तदुपलब्धमर्थमात्मा, तस्मात् स एवोपलब्धा, यदि पुनरिन्द्रियाण्युपलम्भकानि स्युः, तदा तद्विगमे कस्याऽनुस्मरणं स्यात्? / न ह्यन्येनोपलब्धेऽर्थेऽन्यस्य स्मरणं युक्तम्, अतिप्रसङ्गात्, अस्ति चाऽनुस्मरणम्। तस्माद् 'न जानन्तीन्द्रियाणि' इति स्थितेयं प्रतिज्ञा, तद्-बाधकत्वेनोक्तस्याऽनुभवप्रत्यक्षस्य यथोक्तानुमानबाधितत्वेन भ्रान्तत्वादिति // अत्राह- कस्येदं दर्शनं यत् स्वतन्त्राणीन्द्रियाण्युपलब्धिमन्ति?, वयं हि ब्रूमः- यदिन्द्रिय-मनोनिमित्तमात्मनो ज्ञानमुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षम् “आत्मा मनसा युज्यते, मन इन्द्रियेण, इन्द्रियं चार्थेन" इति वचनादिति। हन्त! एवं सति परनिमित्तत्वादनुमानवत् नहीं समझना चाहिए। ऐसा क्यों? इसके उत्तर में कहा- (तद्विगमे अपि)- उन चक्षु आदि इन्द्रिय के नष्ट होने पर भी, उन इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थ का, जो 'पर' द्वारा जाना गया है, आत्मा को स्मरण होता है- यह भाव है। किस की तरह? इसके उत्तर में कहा- जैसे देवदत्त नाम का व्यक्ति गवाक्ष के जरिये स्त्रियों आदि पदार्थों को देखता है, वह उस (देखने में करणभूत) गवाक्ष के बन्द होने पर भी, उस (दृश्य) का स्मरण कर लेता है, ठीक उसी तरह। यहां 'वा' शब्द 'इव' अर्थ का वाचक है (अर्थात् देवदत्त के स्मरण को दृष्टान्त की तरह समझें- यह बताता है)। देवदत्त को कब स्मरण होता है? उत्तर दिया- गवाक्ष (झरोखे) के हटने या उसके अभाव होने पर भी। इस संदर्भ में एक (उक्त प्रतिज्ञा का पोषक) अनुमान-वाक्य इस प्रकार है:- (अर्थोपलब्धि करने वालों के विनाश आदि होने पर भी, उनके द्वारा उपलब्ध पदार्थों को जो स्मरण करता है, उसे (वास्तविक) 'ज्ञाता' माना जाता है, जैसे घर के झरोखे द्वारा उपलब्ध (दृष्ट) पदार्थों की, उस झरोखे के हटने (या नष्ट होने) पर भी देवदत्त आदि को, (जो व्यवहार में निर्विवाद रूप से द्रष्टा है) स्मृति होती (देखी जाती) है। इसी तरह इन्द्रिय-उपलब्ध पदार्थों को, इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी आत्मा स्मरण है, इसलिए वही (वस्तुतः) ज्ञाता है। यदि इन्द्रियां ही ज्ञाता होतीं तो उन (इन्द्रियों) के नष्ट होने पर, (इन्द्रियों से भिन्न) किस व्यक्ति को स्मरण होगा? क्योंकि ऐसा नहीं होता कि ज्ञान किसी को हो और स्मरण किसी और को होता हो, अन्यथा अतिप्रसंग होगा (अर्थात् देवदत्त को ज्ञान होगा तो यज्ञदत्त को स्मरण होने लगेगा, जो कभी होता नहीं)। किन्तु आत्मा को स्मरण होता है, इसलिए 'इन्द्रियां नहीं जानतीं' यह प्रतिज्ञा अखण्डित है, और उसका बाधक जो अनुभव-प्रत्यक्ष (इन्द्रियों द्वारा ज्ञान आदि) बताया गया है, वह भ्रान्तिपूर्ण है, क्योंकि पूर्वोक्त अनुमान से वह बाधित होता है। यहां कोई शंकाकार कहता है- 'इन्द्रियां स्वतंत्र रूप से पदार्थों की उपलब्धि करती हैं' यह दर्शन (मत) किसका है? इसके उत्तर में हमारा कहना यह है कि (वैशेषिक दर्शन के मत में) इन्द्रिय व मन के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'प्रत्यक्ष' है, क्योंकि वे यह कहते हैं कि आत्मा का Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------143