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________________ यत एव 'नाऽगृहीतमीह्यते' इत्याधुक्तम्, एतस्मादेव च तेऽवग्रहादयः सर्वे चत्वारोऽप्येष्टव्या भवन्ति, उक्तन्यायाद, नैकवैकल्येऽपि मतिज्ञानं संपद्यत इत्यर्थः। 'पूर्वमवगृहीतमीह्यते' इत्याधुक्तेरेव च ते भिन्नाः- परस्परमसंकीर्णा :, उत्तरोत्तराऽपूर्वभिन्नवस्तुपर्यायग्रहणादिति। 'नाऽगृहीतमीह्यते' इत्याद्युक्तेरेव च न ते समकालं, भिन्नाः सिद्धास्तेऽवग्रहादयः समकालमपि नैव भवन्ति, युगपन्न जायन्त इत्यर्थः। पूर्वमवगृहीतमेवोत्तरकालमीह्यते, ईहोत्तरकालमेव च निश्चीयते इत्याधुक्तन्यायेनैवावग्रहादीनामुत्पत्तिकालस्य भिन्नत्वाद् न युगपत् संभव इति भावः। उक्तयुक्तरेव च तेषां न व्यतिक्रमः, उपलक्षणत्वाद् 'नाऽप्युत्क्रमः' इत्यपि द्रष्टव्यम्। एतच्च ‘तेण कमोऽवग्गहाई उ' इत्यनन्तरगाथाचरमपादेन सामर्थ्यादुक्तमपि प्रस्तावात् पुनरपि साक्षादुक्तम्, इत्यदोषः। तदेवं ईहिज्जइ नागहियं' इत्यादियुक्तेर्यथोक्तधर्मका एवाऽवग्रहादयः, न विपर्ययधर्माण इति साधितम्। अथ ज्ञेयवशेनाऽप्येषां यथोक्तधर्मकत्वं सिसाधयिषरिदमाह-'न अन्नहा नेयसब्भावो त्ति'। ज्ञेयस्याऽप्यवग्रहादिग्राह्यस्य शब्द-रूपादेर्नान्यथा स्वभावोऽस्ति, येनाऽवग्रहादयस्तद्ग्राहका यथोक्तरूपतां परित्यज्याऽन्यथा भवेयुरित्यर्थः। . ___ व्याख्याः- 'चूंकि अवग्रह से गृहीत न होने पर, उसकी ईहा नहीं होती' -इत्यादि जो कहा गया है, उसी युक्ति के आधार पर उन सभी अवग्रह आदि चारों ही (मति ज्ञानों) का सद्भाव मानना पड़ेगा, अर्थात् उक्त न्याय (युक्ति, रीति) से किसी एक के भी अभाव में मतिज्ञान सम्पन्न नहीं होता है (यह निश्चित होता है)। 'पूर्व में गृहीत की ही ईहा होती है' -इत्यादि युक्ति के आधार ही, वे (अवग्रहादि) भिन्न-भिन्न रूप से, परस्पर-असंकीर्ण, पृथक्-पृथक् (अपने-अपने काल में) होते हैं, क्योंकि वे उत्तरोत्तर अपूर्व व भिन्न-भिन्न वस्तु-पर्यायों को ग्रहण करते हैं। 'अवग्रह-गृहीत न होने पर ही (यह सिद्धान्त स्थिर होता है कि) वे समकाल में भी नहीं होतें हैं, अर्थात् परस्पर भिन्न सिद्ध होने वाले वे अवग्रह आदि (चारों) एक ही समय में भी नहीं होते। 'पूर्व में अवग्रह-गृहीत वस्तु ही उत्तरकाल में ईहा का विषय होती है और ईहा के उत्तरकाल में ही निश्चय (अपाय) होता है' -इत्यादि उक्त व्याय (रीति) से ही (यह सिद्ध होता है कि) अवग्रह आदि के उत्पत्ति-काल के परस्पर भिन्न होने से, उनका एक साथ होना संभव नहीं -यह भाव है। पूर्वोक्त युक्ति के आधार पर ही (यह सिद्ध होता है कि) उनका व्यतिक्रम नहीं होता। यहां 'व्यतिक्रम' उपलक्षण-कथन है, अतः उनका उत्क्रम भी नहीं होता -यह अर्थ भी समझ लेना चाहिए। इसलिए अवग्रह आदि क्रम से (ही) होते हैं' इत्यादि रूप से पूर्व गाथा (296) में अन्तिम चरण द्वारा सामर्थ्य से (स्पष्ट शब्दों के माध्यम से) यही कथन कर भी दिया गया था, किन्तु प्रकरणानुसार उसी बात को यहां पुनः साक्षात् कहा गया है, इसलिए कोई दोष नहीं है। इस प्रकार, 'अवग्रह-गृहीत न हो तो उसकी ईहा नहीं होती' इत्यादि युक्ति के आधार पर, अवग्रह आदि यथोक्त धर्म वाले ही हैं, विपरीत धर्म वाले नहीं हैं -यह भी सिद्ध हो जाता है। अब, 'ये (अवग्रह आदि) यथोक्त धर्म वाले ही ही होते हैं' -इस तथ्य को 'ज्ञेय' होने के आधार पर सिद्ध करने की इच्छा से यह कहा जा रहा है- (न अन्यथा ज्ञेयसद्भावः इति)। अर्थात् अवग्रह आदि से ग्राह्य होने वाले शब्द व रूप आदि का भी विपरीत (उक्त उत्क्रम व अतिक्रम से होने वाले अवग्रह आदि के विषय होने का) स्वभाव नहीं है कि उनके ग्राहक ये अवग्रह आदि अपने पूर्वोक्त धर्म को छोड़ कर अन्य रूप (विपरीत धर्म वाले) हो जाएं। Via 432 -------- विशेषावश्यक भाष्य
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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