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________________ चाऽज्ञातम्-अपायेनाऽनिश्चितं, धार्यते धारणाविषयीभवति, वस्तुधारणाया अर्थावधारणरूपत्वात्, अवधारणस्य च निश्चयमन्तरेणाऽयोगादित्यभिप्रायः। ततश्च धारणादावपायः। ततः किम्?, इत्याह- तेनाऽवग्रहादिरेव क्रमो न्याय्यः, नोत्क्रमाऽतिक्रमौ, यथोक्तन्यायेन वस्त्ववगमाभावप्रसङ्गात् // इति गाथार्थः // 296 // तदेवं निराकृतौ सयुक्तिकमुत्क्रमाऽतिक्रमौ। अथ यदुक्तम्- 'एगाभावे वि वा न वत्थुस्स जं सब्भावाहिगमो तो सव्वेत्ति', तत्रापीयमेव युक्तिरिति दर्शयन्नाह एतो च्चिय ते सव्वे, भवंति भिन्ना य णेव समकालं। न वइक्कमो य तेसिं, न अन्नहा नेयसब्भावो॥२९७॥ [संस्कृतच्छाया:- एतस्मादेव ते सर्वे भवन्ति भिन्नाश्च नैव समकालम्। न व्यतिक्रमश्च तेषां नान्यथा ज्ञेयसद्भावः॥] निश्चित नहीं हो पाई है, वह वस्तु 'धारित' -धारणा का विषय नहीं होती, क्योंकि वस्तु-विषयक धारणा अर्थ-अवधारण रूप होती है, और अवधारण निश्चय हुए बिना नहीं होता -यह अभिप्राय है। इसीलिए धारणा से पहले अपाय का निर्देश किया गया है। (प्रश्न-) इस (पूर्वकृत व्याख्यान) से आप क्या कहना चाहते हैं? उत्तर दिया- इसलिए अवग्रह आदि का (जैसा बताया गया है, वह) क्रम ही न्यायोचित है, उनका उत्क्रम व अतिक्रम न्यायसंगत नहीं, क्योंकि पूर्वोक्त न्याय (रीति) से (उत्क्रम व अतिक्रम के होने पर) वस्तु-विषयक बोध का (ही) अभाव हो जाएगा। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 296 // (ज्ञेय का स्वभाव भी अवग्रहादि की क्रमवर्तिता में अनुकूल) .. इस प्रकार, युक्तिपूर्वक (अवग्रह आदि के) उत्क्रम व अतिक्रम का निराकरण कर दिया . , गया। अब, (गाथा सं. 295 में) जो यह कहा गया था- 'एक के अभाव में भी वस्तु के सद्भाव का ज्ञान नहीं होता, इसलिए सभी का होना उचित है' -इसमें भी वही युक्ति है (जिसका आश्रय लेकर स्वमत का समर्थन करना चाहिए)-इसी बात को स्पष्ट किया जा रहा है- . // 297 // एतो च्चिय ते सव्वे, भवंति भिन्ना य णेव समकालं / न वइक्कमो य तेसिं, न अन्नहा नेयसब्भावो // _[(गाथा-अर्थ :) इसी कारण (पूर्वोक्त युक्ति) से, वे (अवग्रह आदि) सभी (चारों) होते हैं, वे भिन्न-भिन्न रूप से होते है, समकाल में (एक साथ) नहीं होते। उनका व्यतिक्रम भी नहीं होता, और (इसके अतिरिक्त) ज्ञेय का स्वभाव भी वैसा नहीं है (कि वह ज्ञेय अवग्रहादि के उत्क्रम-अतिक्रम आदि से ज्ञान का विषय बने)।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------431
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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