________________ तथा 'उग्गहो ईह अवाओ य धारणा एव होति चत्तारि' इत्यस्यां गाथायां यथैवकारेण पूर्वमेतेषां नियमितः क्रमः, . तथैवैते नियमितक्रमा भवन्ति, नोत्क्रमाऽतिक्रमाभ्यामिति भावः॥ इति गाथार्थः // 295 // अथोत्क्रमाऽतिक्रमयोः, एकादिवैकल्ये चावग्रहादीनां वस्त्वधिगमाभावे युक्तिमाह ईहिज्जइ नाऽगहिअं, नज्जइ नाणीहियं न याऽनायं। धारिज्जइ जं वत्थु, तेण कमोऽवग्गहाई उ॥२९६॥ [संस्कृतच्छाया:- ईह्यते न अगृहीतं, ज्ञायते न अनीहितं, न चाज्ञातम्। धार्यते, यद् वस्तु, तेन क्रमोऽवग्रहादिषु॥] यस्मादवग्रहेणाऽगृहीतं वस्तु नेह्यते-न तत्रेहा प्रवर्तते, ईहाया विचाररूपत्वात्, अगृहीते च वस्तुनि निरास्पदत्वेन विचाराऽयोगादिति भावः। तदनेन कारणेनाऽऽदाववग्रहं निर्दिश्य पश्चादीहा निर्दिष्टा / न चाऽनीहितमविचारितं ज्ञायते- अपायविषयतां याति, अपायस्य निश्चयरूपत्वात्, निश्चयस्य च विचारपूर्वकत्वादिति हृदयम् / एतदभिप्रायवता चाऽपायस्याऽऽदावीहा निर्दिष्टेति।न पहले इस गाथा (सं.178) में ‘एव' (ही) इस पद से जो नियत क्रम बताया गया था, उसी के अनुसार, ये नियत क्रम से होते हैं, उत्क्रम व अतिक्रम से नहीं -यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 295 // अब, उत्क्रम व अतिक्रम में या किसी एक के भी न होने से अवग्रह आदि द्वारा वस्तु-ज्ञान नहीं हो पाता -इसमें क्या युक्ति है -इसे बता रहे हैं // 296 // ईहिज्जइ नाऽगहिअं, नज्जइ नाणीहियं न याऽनायं। धारिज्जइ जं वत्थु, तेण कमोऽवग्गहाई उ // [(गाथा-अर्थ :) चूंकि बिना (अवग्रह से) गृहीत हुए कोई वस्तु ईहा की विषय नहीं होती, बिना ईहा के (निश्चय रूप से) वस्तु ज्ञात नहीं होती (अर्थात् उसका अपाय नहीं होता), (अपाय द्वारा निश्चित रूप से) वस्तु ज्ञात न हो तो उसकी धारणा नहीं होती, इसलिए अवग्रह आदि क्रम (पूर्वक) ही (होते) हैं।] व्याख्याः - (ईह्यते न)। चूंकि अवग्रह से जो वस्तु गृहीत नहीं हो पाती है, वह ईहित नहीं होती। तात्पर्य यह है कि वहां ईहा प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि ईहा विचार (विमर्श) रूप होती है, और अगृहीत वस्तु, चूंकि आश्रयणीय नहीं होती, इसलिए उस सम्बन्ध में विचार-विमर्श (ईहा) का होना संभव नहीं होता। इसलिए, उक्त कारण से, (मतिज्ञान के क्रमों के) आदि में अवग्रह का निर्देश कर, बाद में ईहा का निर्देश किया गया है। (न अनीहितम्) / जो (वस्तु) अनीहित हो, जिसकी ईहा नहीं हुई हो, विचार (विमर्श) नहीं हुआ हो, वह ज्ञान का, अर्थात् 'अपाय' का विषय नहीं होती, क्योंकि 'अपाय' निश्चय रूप होता है, और निश्चय विचारपूर्वक (ही) होता है- यह तात्पर्य है। इसी अभिप्राय से अपाय के पहले ईहा का निर्देश किया गया है। (इसी प्रकार) जो (वस्तु) अज्ञात है, अपाय द्वारा a 430 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------