________________ प्रकटीकरण) ही नियुक्ति है। श्रुतज्ञान को 'अत्थपुहुत्त' कहा जाता है। नियुक्ति के द्वारा ही उक्त संज्ञा की सार्थकता हृदयगम्य होती है। 'अत्थपुहुत्त' के दो संस्कृत रूप हैं- अर्थपृथक्त्व और अर्थपृथुत्व। अर्थपृथक्त्व से तात्पर्य है- सूत्र (शब्द) व अर्थ- इस द्विविध रूपों में (सूत्र को) विभक्त करना। आचार्य शब्द और उसके अर्थ को पृथक्-पृथक् कर सूत्रार्थ की सम्यक् अवगति कराता है। 'अर्थपृथुत्व' से तात्पर्य है- अर्थ की पृथुता अर्थात् अर्थ का विस्तार। अर्थपृथक्त्व या अर्थपृथुक्त्व से आचार्य शिष्य को शास्त्रज्ञान कराता है, तब सूत्र के (प्रत्येक पद के) अर्थ को तो स्पष्ट कराता ही है, सम्बद्ध विषय को विस्तार से भी समझाता है।" समग्र विवेचन का सार यह है कि 'नियुक्ति' की उपादेयता इसलिए है कि वही सूत्रों के वास्तविक अर्थों का निरूपण करती है। कौन-सा अर्थ वास्तविक है- इसे वह निश्चित करती है और साथ ही उस अर्थ को विस्तार भी देती है, अर्थात् उस अर्थ को अधिकता से या विस्तृत व्याख्यान के माध्यम से स्पष्ट करती है। सूत्रार्थ को स्पष्ट करना. निर्णीत करना तथा अपेक्षानुरूप प्रासंगिक विषयों का भी निरूपण करते हुए विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करना 'नियुक्ति' का कार्य होता है। विशेषावश्यक भाष्य की मलधारी हेमचंद्र कृत टीका में उक्त भाव को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जैसे चित्रफलक पर लिखित वस्तु को भी अंगुलि, शलाका आदि से संकेतित करते हुए, तथा कुछ बोल कर समझाता है, वैसे ही श्रोताओं को सूत्रार्थ समझ में नहीं आ रहा हो तो नियुक्तिकार श्रोता शिष्य को सुखपूर्वक समझाने हेतु अनुग्रह-बुद्ध से सूत्रनिहित अर्थ को भी नियुक्ति-पद्धति से व्याख्यायित करता है। कई बार शिष्य स्वयं गुरु से निवेदन करता है कि मैं ठीक तरह से समझ नहीं पा रहा हूं, 35. योजनं युक्तिः अर्थघटना, निश्चयेन आधिक्येन वा युक्तिः नियुक्तिः सम्यगर्थप्रकटनम्। निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानाम् अर्थानाम् आविर्भावनं (युक्त-शब्दलोपात्) नियुक्तिः (सूत्रकृताङ्ग- टीका, पृ. 1, विशेषावश्यक भाष्य, गाथा1086, एवं बृहद्वृत्ति)। 36. विशेषावश्यक भाष्य, गा.-1071-1073. अर्थात् कथंचित् भिन्नत्वात् सूत्रं पृथक् उच्यते ......तयोः सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनम्- अस्य सूत्रस्य अयमर्थः इत्येवं सम्बन्धनं नियुक्तिः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गा.-1071)। अर्थस्य पृथुत्वं पृथुभावः...अर्थस्य विस्तरत्वं जीवाद्यर्थविस्तरः .....ततश्च तस्य अर्थपृथक्त्वस्य, अर्थपृथुत्वस्य भगवतो नियुक्तिं कीर्तयिष्यामि (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-1072-1073)। 37. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-1088-1089, सूत्रपद्धतिरेव.....नियुक्तिकर्तारमाचार्यं तस्य सूत्रस्य अर्थात् तदर्थान् सूत्रे निर्युक्तानपि, अनवबुध्यमाने श्रोतरि, तदनुग्रहार्थं तान् वक्तुम् एषयति इव एषयति प्रयोजयति, अतः तानाचार्यो नियुक्त्या विभाषते (बृहद्वृत्ति, भाष्यगाथा-1088)। यथा मंख: फलके नानाप्रकारं लिखितमपि वस्तु ग्रन्थतः पठति, अर्थतश्च प्रभाषते-व्याचष्टे, शलाका-अंगुल्यादिना च.....दर्शयति....तथा अत्रापि श्रोतृवैचित्र्यं पश्य सर्वानुग्रहप्रवणबुद्धिः आचार्यः सूत्रे निर्युक्तानपि अर्थान् नियुक्त्या विभाषते इति (बृहद्वृत्ति, भाष्य गाथा- 1089) / R(r)(r)RBRBROOBCRORSR [42] Recr(r)(r)(r)(r)(r)(r)ce