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________________ अथेह प्रयोगे दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यं सूरिरुपदर्शयति- मनसो दृष्टान्तीकृतस्याऽप्राप्यकारिणो विषयनियमो 'अस्त्येव' इति शेषः। कुत:?, इत्याह- यतः स त्ति'। तदपि मनः सर्वेष्वप्यर्थेषु न क्रामति न प्रसरति // इति गाथार्थः // 246 // तथाहि अत्थग्गहणेसु मुज्झइ सन्तेसु वि केवलाइगम्मेसु। तं किंकयमग्गहणं अपत्तकारित्तसामन्ने? // 247 // [संस्कृतच्छाया:- अर्थगहनेषु मुह्यति सत्स्वपि केवलादिगम्येषु / तत् किंकृतम् अग्रहणम् अप्राप्तकारित्वसामान्ये॥] अर्था एव मतेर्दुष्प्रवेशत्वाद् गहनानि अर्थगहनानि तेष्वनन्तेषु सत्स्वपि विद्यमानेष्वपि। कथंभूतेषु? इत्याह- केवलं केवलज्ञानमादिर्येषामवधिज्ञानाऽऽगमादीनां तानि केवलादीनि, तैर्गम्यन्ते ज्ञायन्ते केवलादिगम्यानि तेषु। एवंभूतेष्वर्थगहनेषु सत्स्वपि कस्यचिद् मन्दमतेर्जन्तोर्मनो मुह्यति कुण्ठीभवति तदवगमाय न प्रभवति- तान् गहनभूतान् केवलादिगम्यान् सतोऽप्यर्थान् न गृह्णातीति अब (भाष्यकार उक्त पूर्वपक्ष के आरोप में दोष उद्भावित करने हेतु) उक्त युक्ति (अनुमावाक्य) में दृष्टान्त के साध्यविकलता दोष को उद्भावित कर रहे हैं- (मनसोऽपि)। दृष्टान्त रूप से प्रस्तुत किये गये मन के अप्राप्यकारी होते हुए भी 'विषय-नियम' (विषय-परिमाण का नियतपना, सीमितपना) -इसके आगे जोड़े- 'नहीं ही है'। (प्रश्न-) कैसे (नहीं है)? उत्तर दिया- (सः इति)। वह मन भी तो सभी पदार्थों में संक्रमण या प्रसार नहीं करता। (अतःमन रूपी दृष्टान्त में 'विषयपरिमाणअनियतता' रूपी साध्य का सद्भाव नहीं, अपितु अभाव है, इसलिए दृष्टान्त 'साध्यविकल' है, दोषग्रस्त है। अतः नेत्र इन्द्रिय के विषय-परिमाण की अनियतता सिद्ध नहीं हो पाती ) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 246 // और // 247 // अत्थग्गहणेसु मुज्झइ सन्तेसु वि केवलाइगम्मेसु। . तं किं कयमग्गहणं अपत्तकारित्तसामन्ने ? || [(गाथा-अर्थ :) केवलज्ञान आदि से ज्ञेय (अनन्त) गहन पदार्थों के विद्यमान होने पर भी (किसी मन्दमति का मन) मोहग्रस्त (जानने में अक्षम) हो जाता है (तो आप-पूर्वपक्षी भी बताएं कि) अप्राप्यकारिता समान होते हुए (भी) वह क्या कारण है जिससे (सभी पदार्थों का) ग्रहण नहीं होता?] व्याख्याः - (अर्थगहनेषु) जो पदार्थ गहन हैं, गहनता इसलिए है कि मतिज्ञान उनमें कठिनता से प्रविष्ट होता है। ऐसे गहन पदार्थ अनन्त हैं, उनकी विद्यमानता है, फिर भी। (प्रश्न-) वे पदार्थ कैसे हैं? बता रहे हैं- (केवलादिगम्येषु) / (वे पदार्थ) 'केवल ज्ञान' आदि अर्थात् अवधिज्ञान, श्रुत ज्ञान आदि जो ज्ञान हैं, उनसे ज्ञेय हैं। ऐसे गहन पदार्थों के विद्यमान होने पर भी, किसी-किसी मन्दमति प्राणी का मन वहां मुग्ध यानी कुण्ठित हो जाता है, अर्थात् उनको जानने में वह सक्षम नहीं होता। तात्पर्य Ma 360 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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