________________ ज्ञानस्यान्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात् तत एव ज्ञानमुपजायते तज्ज्ञानं दृष्टम्, यथाऽर्थावग्रहपर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानत ईहासद्भावादर्थावग्रहो . ज्ञानम्, जायते च व्यञ्जनावग्रहस्य पर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात् तत एवाऽर्थावग्रहज्ञानम्, तस्माद् व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानम् // इति गाथार्थः / / 195 // तदेवं व्यञ्जनावग्रहे यद्यपि ज्ञानं नानुभूयते, तथापि ज्ञानकारणत्वादसौ ज्ञानम्, इत्येवं व्यञ्जनावग्रहे ज्ञानाभावमभ्युपगम्योक्तम्। सांप्रतं ज्ञानाभावोऽपि तत्राऽसिद्ध एवेति दर्शयन्नाह तक्कालम्मि वि नाणं तत्थरिथ तणुं ति तो तमव्वत्तं। ___ बहिराईणं पुण सो अन्नाणं तदुभयाभावा॥१९६॥ [संस्कृतच्छाया:- तत्कालेऽपि ज्ञानं तत्रास्ति तनु इत्यतस्तदव्यक्तम्। बधिरादीनां पुनः सोऽज्ञानं तदुभयाभावात् // ] तत्कालेऽपि तस्य व्यञ्जनसंबन्धस्य कालेऽपि तत्राऽनुपह तेन्द्रियसंबन्धिनि व्यञ्जनावग्र हे ज्ञानमस्ति, केवलमेकतेजोऽवयवप्रकाशवत् तनु- अतीवाऽल्पमिति। अतोऽव्यक्तं स्वसंवेदनेनापि न व्यज्यते। / ज्ञानात्मक अर्थावग्रह की उपलब्धि होती है (इसलिए ज्ञानजनक होने से, उसे अज्ञानरूप नहीं, ज्ञानरूप ही मानना उचित है)। और भी, जिस ज्ञान के अन्त में, उस ज्ञान के (विषयभूत) ज्ञेय वस्तु का ग्रहण होता है, और उसी से (यदि) ज्ञान उत्पन्न होता है, (तो) वह (पूर्ववर्ती ज्ञान) 'ज्ञान' होता है, जैसे- अर्थावग्रह के अन्त में, उस (अर्थावग्रह) के (विषयभूत) ज्ञेय वस्तु का उपादान (ग्रहण) होकर ही 'ईहा' (ज्ञान) का सद्भाव है, इसलिए अर्थावग्रह ज्ञान है। (इसी तरह) व्यअनावग्रह के अन्त में, उसके ज्ञेय वस्तु का उपादान होकर, उसी से अर्थावग्रह ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिए व्यअनावग्रह (भी अर्थावग्रह की तरह) ज्ञान (ही) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 195 // तो इस प्रकार, यद्यपि व्यअनावग्रह में ज्ञान की अनुभूति न होने पर भी, (अर्थावग्रह रूप) ज्ञान का कारण होने से वह (व्यञ्जनावग्रह) ज्ञान है। इस रीति से व्यञ्जनावग्रह में ज्ञानरूपता को मान कर निरूपण किया गया। अब. 'वहां ज्ञान-अभाव सिद्ध ही नहीं होता' इस तथ्य को स्पष्ट कर रहे हैं // 196 // तक्कालम्मि वि नाणं तत्थत्थि तणुंति तो तमव्वत्तं। बहिराईणं पुण सो अन्नाणं तदुभयाभावा // [(गाथा-अर्थ :) (व्यञ्जनावग्रह जब होता है) उस काल में भी वहां ज्ञान (है, किन्तु) अल्प है, इसलिए वह अव्यक्त रहता है। किन्तु बधिर (बहरे एवं अन्य अशक्त इन्द्रियों वालों) आदि के तो अज्ञान ही है, क्योंकि (ज्ञान-कारण एवं अव्यक्त ज्ञान -इन) दोनों का ही उनके अभाव है।] व्याख्याः - उस काल में भी अर्थात् व्यञ्जनावग्रह के समय में भी, वहां अर्थात् अनुपहत (निर्दुष्ट) इन्द्रिय से सम्बन्धित व्यञ्जनावग्रह में, ज्ञान है, किन्तु वह एक तैजस अवयव (छोटी सी छोटी चिनगारी) की तरह तनु (कृश, सीमित, अल्पतम, तुच्छ) अर्थात् अत्यन्त अल्प है। इसलिए अव्यक्त होने से वह स्वसंवेदन से भी व्यक्त नहीं होता है। Wha 288 -------- विशेषावश्यक भाष्य -----