________________ [संस्कृतच्छाया:- यदि मतिरनक्षरैव भवेत् नेहादयो निरभिलाप्ये / स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेकः कथं नु भवेत्॥] यदि हन्त! मतिरनक्षरव स्यात्- अक्षराभिलापरहितैव भवताऽभ्युपगम्यते, तर्हि निरभिलाप्येऽप्रतिभासमानाभिलापे स्थाण्वादिके वस्तुनि ईहादयो न प्रवर्तेरन्। ततः किम्?, इत्युच्यते- तस्यां मतावनक्षरत्वेन स्थाण्वादिविकल्पाभावात्, 'स्थाणुरयं पुरुषो वा' इत्यादिपर्यायाणां वस्तुधर्माणां विवेको वितर्कोऽन्वय-व्यतिरेकादिना परिच्छेदो न स्यात्, तथाहि- यदनक्षरं ज्ञानं न तत्र स्थाणुपुरुषपर्यायादिविवेकः, यथाऽवग्रह, तथा चेहादयः, तस्मात् तेष्वपि नासौ प्राप्नोति // इति गाथार्थः॥१६३॥ अथ विभ्रान्तस्य परस्योत्तरमाह सुयनिस्सियवयणाओ अह सो सुयओ मओ न बुद्धीओ। जइ सो सुयवावारो तओ किमन्नं मइन्नाणं? // 164 // [संस्कृतच्छाया:- श्रुतनिश्रितवचनादथाऽसौ श्रुततो मतो न बुद्धेः। यदि स श्रुतव्यापारः ततः किमन्यद् मतिज्ञानम्॥] [(गाथा-अर्थः) यदि मति निरक्षर है तो निरभिलाप्य (शब्दोल्लेखरहित मति) होने से उस में ईहा आदि नहीं हो पाएंगे और तब स्थाणु (ढूंठ वृक्ष) और पुरुष में विवेक (अन्तर) किस प्रकार (निर्णीत) हो पाएगा?] - व्याख्याः - (दया के पात्र!) यदि आप मति को अनक्षर यानी अक्षरस्फुरण से रहित ही मान रहे हैं तो निरभिलाप्य-जिसमें अभिलाप प्रतिभासमान नहीं होता, ऐसे मतिज्ञान में 'ईहा' आदि (भेद या क्रम) नहीं हो पाएंगें (शब्दोल्लेख वाले ईहादि को मतिज्ञान के अन्तर्गत कैसे मान सकेंगे, क्योंकि मतिज्ञान को तो निरक्षर ही मान रहे हैं)। इससे क्या (क्षति है)? उत्तर है- मति के अनक्षर होने से 'स्थाणु' आदि विकल्पों का अभाव मानना पड़ेगा, और तब 'यह स्थाणु है या पुरुष है? इत्यादि रूप वस्तुधर्मात्मक पर्यायों का विवेक- यानी अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर वितर्क होकर निर्णय- नहीं होगा। क्योंकि जो अनक्षर ज्ञान है, वहां स्थाणु व पुरुष पर्याय आदि का विवेक नहीं हो सकता, जिस प्रकार अवग्रह में (उक्त विवेक नहीं होता), ईहा आदि भी अनक्षर ही हैं, अतः उनमें भी उक्त विवेक नहीं हो पाएगा.॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 163 // - अब (सम्भावित समाधान प्रस्तुत करने वाले) विभ्रान्त (मति-विबम से ग्रस्त) पूर्वपक्षी को लक्ष्य कर आचार्य प्रत्युत्तर दे रहे हैं (164) सुयनिस्सियवयणाओ अह सो सुयओ मओ न बुद्धीओ। जइ सो सुयवावारो तओ कि मन्नं मइन्नाणं? // [(गाथा-अर्थः) (पूर्वपक्षी द्वारा प्रस्तुत समाधान-) श्रुतनिश्रित भाषण रूप श्रुत से वह (विवेक) होता है, न कि (अनक्षर) मति से। (ऐसा मान लें तब तो कोई दोष नहीं।) (उत्तर-) यदि वह (विवेक) श्रुतव्यापार है तो (सिवाय अवग्रह के) मतिज्ञान और क्या रहा? (अर्थात् ईहा आदि रूपों में मतिज्ञान के अस्तित्त्व की ही समाप्ति हो जाएगी।)] ------ विशेषावश्यक भाष्य --------241 2