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________________ अथ मा भूदेष दोष इति 'न क्रियते' इत्यभ्युपगम्यते। हन्त! न तर्हि स तस्य सहकारी, विशेषाकरणात्। अथ विशेषमकुर्वन्नपि' सहकारीष्यते। तर्हि सकलत्रैलोक्यस्यापि सहकारिताप्राप्तिः, विशेषाकरणस्य तुल्यत्वात्, इति व्यर्था शरीरमात्रापेक्षा, इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात्। तस्माच्छरीरमात्रवृत्तिरेवाऽऽत्मा, न सर्वगत इति। अतस्तदव्यतिरिक्तस्य भावमनसो न शरीराद् बहिनि:सरणमुपपद्यत इति स्थितम् // इति गाथार्थः॥ 216 // अथ द्रव्यमनो विषयदेशं व्रजतीति ब्रूयात्, तत्राऽप्याह दव्वमणो विण्णाया न होइ गंतुं च किं तओ कुणउ?। अह करणभावओ तस्स, तेण जीवो वियाणेज // 217 // [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यमनो विज्ञातृ न भवति, गत्वा च किं ततः करोतु? अथ करणभावतस्तस्य, तेन जीवो विजानीयात् // ] यह अनित्यता का दोष आत्मा में नहीं आए -इसलिए यदि आप (सहकारी कारण द्वारा कोई 'विशेष') नहीं किया जाता -ऐसा स्वीकार करें तो अफसोस! उस (भावमन) का वह (शरीर) सहकारी ही नहीं रहा, क्योंकि कुछ 'विशेष' तो वह करता नहीं (तो उसे सहकारी कैसे कहा जा सकता है)? यदि कुछ 'विशेष' न करते हुए भी उस (शरीर) को सहकारी मानेंगे तब तो समस्त त्रैलोक्य (का प्रत्येक पदार्थ) सहकारी कारण (में परिगणित) हो जाएगा, क्योंकि कुछ 'विशेष' न करने का स्वभाव (शरीर व समस्त पदार्थों में) समान ही है। अतः शरीर मात्र की अपेक्षा निरर्थक सिद्ध होती है। इत्यादि और भी बहुत कुछ यहां कहा जा सकता है, किन्तु ग्रन्थ गहन (अधिक क्लिष्ट व विस्तृत) हो जाएगा, इसलिए (अधिक कुछ) नहीं कह रहे हैं। अतः आत्मा शरीरमात्र व्यापी ही है, न कि सर्वव्यापी। इसलिए उस (आत्मा) से अभिन्न भावमन का शरीर से बाहर निकलना संगत नहीं ठहरता -यह निश्चित हुआ // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 216 // (द्रव्य मन का बहिर्गमन नहीं) (भावमन भले ही अप्राप्यकारी हो,) द्रव्यमन अपने विषय देश तक जाता (स्पृष्ट होता) हैऐसा पूर्वपक्षी कह सकता है, उस मत पर भी (भाष्यकार अपना विचार) कह रहे हैं // 217 // दव्वमणो विण्णाया न होइ गंतुंच किं तओ कुणउ?| अह करणभावओ तस्स, तेण जीवो वियाणेज्ज // [(गाथा-अर्थ : द्रव्यमन तो (अचेतन होने से) ज्ञाता है नहीं, अतः वह (अन्यत्र) जाकर भी क्या करेगा? (पूर्वपक्ष की ओर से सम्भावित समाधान-) द्रव्यमान ज्ञान में करण (साधन) है, उसी से तो जीव को ज्ञान होता है (तो साधन बाहर चला जाता है, जिसके माध्यम से जीव (पदार्थों को) जानता है (-ऐसा हम कहते हैं)।] Mar 318 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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