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________________ इदमुक्तं भवति- आत्मनः समात्रिभुवनगतत्वे, प्राप्यकारित्वेनाऽभ्युपगतस्य तदव्यतिरिक्तस्य भावमनसोऽपि सर्वगतत्वात् / सर्वार्थप्राप्ते: सर्वग्रहणप्रसङ्गः। तथा च सर्वस्य सर्वज्ञत्वप्रसक्तिः। अथोक्तन्यायेन प्राप्तानपि सर्वार्थानभिहितदोषभयाद् न गृह्णाति इत्युच्यते, तर्हि सर्वाग्रहणप्रसङ्गः- ग्राह्यत्वेनेष्टानप्यर्थान् मा ग्रहीन भावमनः, प्राप्तत्वाविशेषात्, अग्राह्यत्वेनेष्टार्थवदिति भावः। / अथ प्राप्तत्वाविशिष्टत्वेऽपि कांश्चिदर्थानेतद् गृह्णाति, कांश्चिद् नेत्युच्यते। तर्हि व्यक्तमीश्वरचेष्टितम् न चैतद् युक्तिविचारे क्वचिदप्युपयुज्यत इति। आदिशब्दात् सर्वगतत्व आत्मनोऽन्यदपि दूषणमभ्यूह्यम्, तथाहि- यथाऽङ्गुष्ठादौ दहनदाहादिवेदनायां मस्तकादिष्वप्यसावनुभूयते, तथा सर्वत्रापि तत्प्रसङ्गः, न च भवति, तथाऽनुभवाभावात्, अननूभूयमानाया अपि भावाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्। हो जाएगी)। (पूर्वपक्ष-निराकरण-) यह कथन भी असंगत है, क्योंकि प्रकृति को (तो) अचेतन माना गया है, वह इसलिए क्योंकि चैतन्य तो पुरुष का स्वरूप है -ऐसा (सांख्यों का) कथन है, और अचेतन (प्रकृति) में भोग आदि क्रियाएं नहीं हो सकतीं, अन्यथा घट आदि (अचेतन पदार्थों) में भी क्रिया का सद्भाव मानना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि यदि आत्मा को समग्र त्रिभुवन में व्यापक माना जाय तो आत्मा से अभिन्न (होने के कारण) भावमन को (भी)- जिसे प्राप्यकारी माना जा रहा है- सर्वव्यापी मानना पड़ेगा, परिणामस्वरूप, सभी पदार्थों से संस्पृष्ट होने के कारण, (भावमन से) सभी पदार्थों के ग्रहण (ज्ञान) होने का दोष प्रसक्त (संभावित) होगा, जिससे सब प्राणियों का सर्वज्ञ होना प्रसक्त (संभावित) होगा (अर्थात् सभी को सभी पदार्थ ज्ञात होंगे और सभी प्राणी सर्वज्ञ हो जाएंगे, किन्तु ऐसा तो प्रत्यक्षविरुद्ध है)। (पूर्वपक्षी की ओर से संभावित समाधान-) (सर्वज्ञता-सम्बन्धी) दोष के भय से (उस दोष से बचने हेतु) यदि आप ऐसा कहें कि यद्यपि उक्त रीति से समस्त पदार्थ स्पृष्ट हैं, फिर भी भावमन सभी पदार्थों का ग्रहण (ज्ञान) नहीं करता। (भाष्यकार द्वारा उक्त समाधान में दोषारोपण-) तक तो (ऐसा भी हो सकता है कि) भावमन समस्त पदार्थों (में से किसी) का (भी) ग्रहण न करे। तात्पर्य यह है कि अनुग्राह्य रूप से अभीष्ट पदार्थों की तरह ही ग्राह्य रूप से अभीष्ट पदार्थों को भी भावमन ग्रहण नहीं करेगा, क्योंकि दोनों में 'स्पृष्ट होना' समान रूप से उपलब्ध है। (पूर्वपक्षी की ओर से पुनः संभावित समाधान के रूप में कथन-) आप ऐसा कहें कि यद्यपि सभी पदार्थों में स्पृष्टता समान है, फिर भी भावमन कुछ पदार्थों को ग्रहण करता है, कुछ पदार्थों को नहीं। (भाष्यकार का पूर्वपक्षी के उक्त समाधान पर दोषारोपण-) तब तो भावमन में 'ईश्वरीय चेष्टा' (यथेच्छ, अनियंत्रित कर्तृत्व) का होना स्पष्ट रूप से मान लिया जा रहा) है और वह युक्तिसंगत विचार की प्रक्रिया में कहीं भी उपयुक्त नहीं है। (कर्तृत्व-अभावादि दोष में) 'आदि' पद से (यह सूचित किया गया है कि सर्वव्यापी आत्मा मानने पर (कर्तृत्व-अभाव जैसे) अन्य भी कई दोष हैं- ऐसा समझ लेना चाहिए / उदाहरणार्थ, जैसे (देहव्यापी आत्मा की स्थिति में) अंगूठे में अग्निदाह-सम्बन्धी वेदना होने पर मस्तक आदि में भी वह अनुभूत होती है, उसी तरह (आत्मा के सर्वव्यापी होने की Na 316 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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