SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेन च संपूर्णचरण-गुणसंग्रहलक्षणेन स्वरूपविशेषणेनाऽऽवश्यकानुयोगस्य महार्थतां दर्शयति भाष्यकारः॥ आह- ननु यदि त्वयाऽऽवश्यकानुयोगः स्वमनीषिकया वक्ष्यते, तदाऽनादेय एवायं प्रेक्षावताम्, छद्मस्थत्वे सति स्वतन्त्रतयाऽभिधीयमानत्वात्, रथ्यापुरुषवाक्यवत्, इति परवचनमाशय तदुपन्यस्तहेतोरसिद्धतामुपदर्शयन्नाह- 'गुरूवएसाणुसारेणं ति।' गृणन्ति तत्त्वमिति गुरवस्तीर्थकर-गणधरादयः, तेषामुपदेशो भणनम्, तदनुसारेण तत्पारतन्त्र्येणाऽऽवश्यकानुयोगमहं वक्ष्ये, न तु स्वमनीषिकया, अतः स्वतन्त्रतयाऽभिधीयमानत्वादित्यसिद्धो हेतुरिति भावः। यो हि छद्मस्थः सन् परमगुरूपदेशानपेक्षं स्वतन्त्रमेव वक्ति रथ्यापुरुषस्येव, तस्य वचोऽनादेयमिति वयमपि मन्यामहे, केवलं तदिह नास्ति, परमगुरूपदेशानुसारेणैवाऽऽवश्यकानुयोगस्य मयाऽभिधीयमानत्वादिति। तदेवं कृतप्रवचनप्रणामो गुरूपदेशनिश्रया सकलचरण-गुणसंग्रहरूपमावश्यकानुयोगमहं वक्ष्य इति पिण्डार्थः॥ आह- ननु श्रीमद्भद्रबाहुप्रणीता सामायिकनियुक्तिरिह भाष्ये व्याख्यास्यते, तत्कथमिदमावश्यकानुयोगोऽभिधीयते?। . इस प्रकार भाष्यकार ने (आवश्यक-अनुयोग का सम्पूर्ण चरण-गुण-संग्रहरूप विशेषण देकर) 'आवश्यक अनुयोग' की महार्थता (महान्-विस्तृत आशय से युक्त होने की विशेषता) को प्रकट किया है। “यदि आवश्यक अनुयोग का व्याख्यान अपनी (सीमित) बुद्धि से अर्थात् अपनी मनमर्जी से किया जा रहा हो, तब तो यह प्रेक्षावान् (समझदार) व्यक्तियों के लिए अनादेय (अग्राह्य) हो जाएगा, क्योंकि छद्मस्थ (असर्वज्ञ) होते हुए जो कुछ स्वतन्त्रता (मनमर्जी) से कहा जाता है, वह प्रेक्षावानों के लिए अनादेय होता है, जैसे गली (राह) चलते (सामान्य) पुरुष के वचन की तरह।' इस परकीय शंका को मन में रखकर उसमें उपन्यस्त हेतु (स्वतन्त्रता-मनमर्जी से कहे जाने रूप) की असिद्धता को बताने के लिए कहा- गुरुवएसाणुसारेण, अर्थात् गुरुजनों से प्राप्त उपदेश के अनुसार (व्याख्यान करूंगा, न कि अपनी मनमर्जी से)। जो तत्त्व को कहते हैं, वे गुरु हैं, तीर्थंकर व गणधर आदि / वचन / का अर्थ है- उनका उपदेश / उसके अनुसार, उनके कथन की परतन्त्रता के साथ मैं आवश्यक अनुयोग कहूंगा, अपनी बुद्धि से नहीं। अतः 'स्वतन्त्रता से कहा गया है'- यह हेतु असिद्ध है, अनुपयुक्त है। क्योंकि जो छद्मस्थ होता हआ परमगुरु के उपदेश की अपेक्षा न करके स्वतन्त्रता से कहता है, गली चलते पुरुष की तरह, उसका वचन ग्रहण करने योग्य नहीं है। ऐसा हम भी मानते हैं। किन्तु वह स्थिति यहां नहीं है। क्योंकि परम गुरु के उपदेश के अनुसार ही यहां मेरे द्वारा आवश्यक सम्बन्धी निरूपण किया जा रहा है। इस प्रकार 'प्रवचन को प्रणाम कर के गुरु-उपदेश को आधार मानकर सम्पूर्ण चरणों व गुणों के संग्रह रूप आवश्यक-अनुयोग को कहूंगा' -यह गाथा का अर्थ हुआ। प्रश्नकर्ता कहता है- श्रीमद् भद्रबाहु के द्वारा प्रणीत सामायिक नियुक्ति की यहां भाष्य रूप में यदि व्याख्या की जा रही है तो इसे [नियुक्ति-अनुयोग कहा जाना चाहिए] आवश्यक अनुयोग कहा जाना संगत कैसे है? Ma 6 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy