________________ नैतदेवम्, अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, तथाहि- सामायिकस्य षड्विधावश्यकैकदेशत्वादावश्यकरूपता तावद् न विरुद्ध्यते, तनियुक्तिस्तु तद्व्याख्यानरूपैव, व्याख्येय-व्याख्यानयोश्चैकाभिप्रायत्वादेकत्वमित्यनन्तरमेवोक्तम्। तस्मात् सामायिकस्य तन्निर्युक्तेश्च सर्वस्याऽप्यावश्यकत्वात्, तस्य चेह व्याख्यायमानत्वादावश्यकानुयोगरूपता भाष्यस्य न विहन्यते, इत्यलं विस्तरेण // अस्याश्च गाथायाः प्रथमपादेन विघ्नसंघातविघातार्थं मङ्गलहेतत्वादिष्टदेवतानमस्कारः कुतः, शेषपादत्रयेण त्वभिधेयप्रयोजन-संबन्धाभिधानमकारि। तत्रावश्यकानुयोगं वक्ष्य इति ब्रुवताऽऽवश्यकानुयोगोऽस्य शास्त्रस्याऽभिधेय इति साक्षादेवोक्तम्। प्रयोजनसंबन्धौ तु सामर्थ्यादुक्तौ, तथाहि-संपूर्णचरण-गुणसंग्राहकत्वं दर्शयता ज्ञान-दर्शन-चारित्राधारताऽस्य शास्त्रस्य दर्शिता भवति, तद्रूपाणि च शास्त्राणि पठन-श्रवणादिभिरनुशील्यमानानि स्वर्गाऽपवर्गप्राप्तिनिबन्धनानि भवन्तीति प्रतीतमेव, अतः स्वर्गमोक्षफलावाप्तिरस्य शास्त्रस्य प्रयोजनमिति सामर्थ्यादुक्तं भवति। अभिधेयाऽभिधायकयोश्च, वाच्य-वाचकभावलक्षणः संबन्धोऽप्यर्थादभिहितो भवति। अस्यां च संबन्ध-प्रयोजनाऽभिधेयादिचर्चायां बह्वपि वक्तव्यमस्ति, केवलं बहुषु शास्त्रेष्वतिचर्चितत्वेन सुप्रतीतत्वात्, तथाविधसाध्यशून्यत्वाच्च नेहोच्यते। उत्तर- यह (असंगति की) बात नहीं है। क्योंकि आपने हमारे कथन के अभिप्राय को समझा ही नहीं है। सामायिक तो छह प्रकार के आवश्यक का एक भाग है, इसलिए 'सामायिक' को 'आवश्यक' रूप कहने में कोई विरोध नहीं है। उसकी नियुक्ति भी उसका व्याख्यान रूप ही है। व्याख्येय और व्याख्यान -इन दोनों में एकत्व (अभेद) मानकर दोनों की एकता है- ऐसा हमने पूर्व में बताया ही है। इसलिए सामायिक और उसकी नियुक्ति सभी ‘आवश्यक' रूप हैं, और उसका यहां व्याख्यान है, इस दृष्टि से भाष्य को 'आवश्यक-अनुयोग' कहना असंगत नहीं है। अब और अधिक विस्तार करने की आवश्यकता नहीं। इस गाथा के प्रथम पाद द्वारा इष्टदेवता को नमस्कार किया गया है क्योंकि वह विघ्न-समूह के विनाश में मङ्गल-हेतु है और शेष तीन पादों से अभिधेय, प्रयोजन और सम्बन्ध का कथन किया गया है। वहां गाथा में 'आवश्यक अनुयोग को कहूंगा'- इस कथन द्वारा 'आवश्यक अनुयोग इस शास्त्र का अभिधेय (कथन का विषय) है', ऐसा साक्षात् कह दिया गया है। प्रयोजन और सम्बन्ध तो सामर्थ्य से (अर्थात् स्वतः, प्रकारान्तर से) अभिहित हो गए हैं। इसे सम्पूर्ण चरण-गुण-संग्रहयुक्त बता कर यह संकेत कर दिया गया है कि यह शास्त्र ज्ञान-दर्शन-चारित्र का आधार है। और, जो भी ऐसे शास्त्र होते हैं, यदि उनका पठन-श्रवण व अनुशीलन किया जाय तो वे स्वर्ग व मुक्ति की प्राप्ति में साधन होते हैं- यह सभी जानते हैं। अतः ‘स्वर्ग व मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होना इस शास्त्र का प्रयोजन है'- यह सामर्थ्य से (स्वतः, प्रकारान्तर से) अभिहित हो गया है। अभिधेय और अभिधायक में परस्पर वाच्य-वाचकभाव लक्षण सम्बन्ध है- यह भी अर्थतः (अर्थानुशीलन से) अभिहित हो जाता है। सम्बन्ध, प्रयोजन, अभिधेय- इनकी चर्चा में यद्यपि बहुत कुछ वक्तव्य है, किन्तु, अनेक शास्त्रों में यह विषय अतिचर्चित होने से सभी को ज्ञात है, और यही (अर्थात् इस पर चर्चा करना) हमारा मुख्य प्रयोजन भी नहीं है, इसलिए हम यहां इस सम्बन्ध में (अधिक) नहीं कह रहे हैं। Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 7