________________ गमनविषययोरनुग्रहोपघातयो रूपं कुसुमपरिमल-मार्गपरिश्रमादिकं स्वरूपम्पलभ्यते। तस्मात् स्वापावस्थायामपि नाऽन्यत्र मनसो , गमनम्, देहगमनदर्शनेन व्यभिचारात् // इति गाथार्थः // 225 // अत्र विबुद्धस्य सतस्तद्गतानुग्रहोपघातानुपलम्भाद् इत्यस्य हेतोरसिद्धतोद्भावानार्थं परः प्राह: दीसंति कासइ फुडं हरिस-विसादादयो विबुद्धस्स। सिमिणाणुभूयसुह-दुक्ख-रागदोसाइलिंगाई॥२२६॥ [संस्कृतच्छाया:- दृश्यन्ते कस्यचित् स्फुटं हर्षविषादादयो विबुद्धस्य। स्वप्नानुभूत-सुखदुःखरागद्वेषादिलिङ्गानि // ] इह कस्यचित् पुरुषस्य स्वप्नोपलम्भानन्तरं विबुद्धस्य सतः स्फुटं व्यक्तं दृश्यन्ते हर्ष-विषादादयः, आदिशब्दादुन्मादमाध्यस्थ्यादि-परिग्रहः। कथंभूता ये हर्ष-विषादादयः? इत्याह- "सिमिणेत्यादि'। स्वप्ने जिनस्नात्रदर्शनादौ यदनुभूतं सुखं, समीहिताऽर्थाऽलाभादौ यदनुभूतं दुःखं, तयोर्विषये यथासंख्यं यौ राग-द्वेषौ तयोलिङ्गानि चिह्नानि- हर्षः स्वप्नानुभूतसुखं रागस्य लिङ्ग, विषादस्तु तदनुभूतदुःखद्वेषस्य लिङ्गमिति भावः। तत्रकी सुगन्धि एवं मार्ग में चलने से थकान आदि स्वरूप वाले -(जो) अनुग्रह व उपघात (होते हैं, उन) की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए (मानना चाहिए कि) सोने की स्थिति में भी मन अन्यत्र नहीं गया था, और (स्वप्न में) शरीर का (अन्यत्र) गमन जो देखा जाता है, उसमें (तो स्पष्ट) व्यभिचार है (ही)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 225 // ___ जागे हुए व्यक्ति में (स्वप्न-अनुभूत अन्यत्र) गमन से होने वाले अनुग्रह व उपघात की उपलब्धि नहीं होती -इस हेतु की असिद्धता के उद्भावन हेतु अब पूर्वपक्षी की ओर से कथन इस . प्रकार है // 226 // दीसंति कासइ फुडं हरिस-विसादादयो विबुद्धस्स। सिमिणाणुभूयसुह-दुक्ख-रागदोसाइलिंगाइं॥ [(गाथा-अर्थ :) किसी-किसी 'जागे हुए व्यक्ति में हर्ष-विषाद आदि के स्पष्ट दर्शन होते हैं जो (निश्चित ही) स्वप्न में अनुभूत सुख, दुःख, राग व द्वेष आदि के ही चिन्ह होते हैं (अतः स्वप्नानुभूति जनित अनुग्रह व उपघात का सद्भाव ही है, अतः 'अनुग्रह-उपघात-अभाव' रूप हेतु असिद्ध है)।] व्याख्याः- यहां किसी-किसी व्यक्ति को स्वप्न देखने के बाद जागने पर उसे स्पष्ट-अभिव्यक्त रूप से हर्ष, विषाद आदि होते देखे जाते हैं। 'आदि' पद से उन्माद, माध्यस्थ्य (वीतरागता) आदि का ग्रहण करना यहां अभीष्ट है। ये हर्ष व विषाद आदि कैसे हैं? उत्तर दिया- (स्वप्नानुभूत इत्यादि)। स्वप्न में जिनेन्द्र (की मूर्ति) का स्नान होते देखने आदि में जो सुख अनुभूत हुआ, या अभीष्ट पदार्थ के न मिलने पर जो दुःख अनुभूत हुआ, उनसे सम्बन्धित क्रमशः जो राग या द्वेष, उनके ही ये लिंगचिन्ह हैं। तात्पर्य यह है कि स्वप्नों में अनुभूत सुख के प्रति राग का चिन्ह है- हर्ष / और स्वप्न में अनुभूत दुःख के प्रति द्वेष का चिन्ह है- विषाद / उदाहरणार्थMa 332 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------