________________ एक सृजनधी व्यक्तित्व 21वीं सदी के आगमज्ञ मनीषी मनिराजों की श्रेणी में पूज्य आचार्य श्री की अपनी पहचान है। इनकी विमल प्रज्ञा-गंगा में आगमों का अमृत बहता है। इनकी प्रज्ञा में प्रवाहित ज्ञान-प्रभा न केवल इनकी मस्तिष्कीय चकाचौंध की उपज है बल्कि इनके आचार, विचार और व्यवहार के प्रत्येक क्षण में उस प्रभा की स्वतः स्फूर्त प्रभावना के दर्शन किए जा सकते हैं। "कहं चरे, कह। चिठे'... के आगमीय प्रश्न इनके आचार में "जयंचरे, जयंचिठे'...के शाश्वत समाधान बनकर साकार हुए देखे जा सकते हैं। न केवल अपने कपा-पात्रों के प्रति बल्कि (निःसंदेह) प्राणिमात्र के प्रति इनकी आत्मीयता, मृदुता, ऋजुता "निग्गंथा उज्जुदसिणो'' का सांगोपांग दर्शन प्रस्तुत करती है। साधुता की शाश्वत सुवास से सुवासित इनके व्यक्तित्व का दर्शनार्थी। मंत्रमुग्ध हो उठता है। 'साधना, स्वाध्याय और सजनधर्मी व्यक्तित्व के संगम (जंगम) तीर्थ श्रद्धेय आचार्य श्री द्वारा रचित, अनुदित, व्याख्यायित एवं संपादित शब्द-संसार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। सर्वाधिक पढ़े-पढ़ाए जाने वाले जैन साहित्य में आचार्य श्री के साहित्य का अपना प्रमुख स्थान है। महाप्राण मनि मायाराम, जैन चरित्र कोष, अहिंसा विश्वकोष, मैं महावीर को गाता हूँ, मैं सबका मित्र हूँ, आदि इनकी कालजयी रचनाएं हैं।। इस क्रम में प्रस्तुत ग्रन्थ श्री विशेषावश्यक भाष्य का सटीक अनुवादन भी पूरी गरिमा के साथ जुड़गया है। __1500 वर्ष पूर्व रचित श्री विशेषावश्यक भाष्य पर राष्ट्रभाषा में कलम चलाने वाले आप प्रथम मुनिराज हैं। आपका यह सूजन-धर्म स्वाध्याय प्रेमियों एवं विशेषतः शोधार्थियों के लिए ज्ञानालोक के नए वातायन खोलने वाला सिद्ध होगा, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। -अमित राय जैन (महामंत्री : एस.एस. जैन सभा बड़ौत)